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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्ष टीका अ. १ सू० १६ अकालमेघदोहदनिरूपणम् सौधर्मकल्पवासिनोऽन्तिके इममर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः स्वकात् भवनात् प्रतिनिष्क्रामति-निःसरति, प्रतिनिष्क्रम्य, यत्रैत्र श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त मस्तकेऽखलिं कृत्वा एवमवदत् - एवं खलु हे तात! मम पूर्वसंगतिकेन सौधर्मकल्पवासिना देवेन क्षिप्रमेव सञ्जिता सवि द्युत् पञ्चवर्णमेघनिनादोपशोभिता दिव्या प्रावृश्रीः विकुर्विता=वैक्रियशक्तया प्रकटीकृता । 'तं' तत् = तस्मात् विनयतु = पूरयतु मम लघुमाना धारिणीदेवी अकाल कर लेवें ! (तए से अभयकुमारे तस्स पुन्वसंगइयस्स देवस्स सोहम्मकप्पवासिस्स अंतिए एमई सोच्चा जिसम्म हहतुट्ठे सयाओ भवणाओ पक्खिम) इसके बाद उस पूर्वसंगतिक सौधर्मकल्पवासी देव के इस कथन को सुनकर तथा हृदय में धारण कर वह अभयकुमार हर्षितहोता हुआ अपने मकान से निकला (पडिनिक्खमित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ ) और निकलकर जहा श्रणिक महाराज थे वहां पहुँचा । (उवागच्छित्ता करयल अंजलिं कट्टु एवं क्यासी) पहुँचकर उसने दोनों हाथों को अंजलिरूप में करके और उसे मस्तक पर चढ़ाकर के राजाको नमस्कार किया और इस प्रकार कहा - ( एवं खलु ताओ ? मम पुव्व से ६. इणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सगज्जिया सविज्जुया पंचवन्नमेहनिनाओ सोहिया दिव्वा पाउससिरी विउच्चिया) हे तात ? मेरे पूर्वभ के मित्र सौधर्मकल्पवासी देवने शीघ्र ही सगर्जित सविद्युत् तथा पंच वर्णवाले मेघों के निनाद से उपशोभित दिव्य प्रावृषश्रीप्रकटकरदी है (तं विउण मम चुल्लमाउया धारिणी देवी अकाल दोहल) अतः मेरी छोटी मता अभयकुमारे तस्म पुत्र्वसंगइयस्स देवस्स सोहम्मरुप्पवामिस्स अनए एयमहं सोचा णिसम्म हट्ट तुट्ठे सयाओ भवणाओ पडिनिक्खमइ ) त्यारमाह સૌધર્મ કલ્પવાસી દેવનું આ કથન સાંભળીને તેની વાત ખરેખર હૃદયમાં ધારણ उरीने अभयङ्गुभार हर्षित भने पोताना महेलथी महार नीज्या (पडिनिव वमित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उनागच्छइ) मने महार नीउणीने श्रेणि पासे गया. ( उवागच्छित्ता करयल अंजलिं कट्टु एवं वयासी) त्यां न्हाने जन्ने હાથની અંજિલ ખનાવીને તેને મસ્તક ઉપર મૂકીને નમસ્કાર કર્યા અને કહ્યું—— ( एवं खलु ताओ ? मम पुत्र्व संगइएण सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेत्र सगज्जिया सविज्जुया पंचवन्न मेहनिनाओवसोहिया दिव्वा पाउससिरी विउन्निया) हे तात! भारा पूर्वभवना सौधर्म उदयवासी देवे सही सगर्भित,, સવિદ્યુત તેમ જ પાંચરંગવાળા મેઘાના ગજનથી સુÀાભિત દ્વિવ્ય વર્ષાકાળની શાલા પ્રકટાવી છે For Private and Personal Use Only २२१
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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