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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षि टीका. अ १ १६ अकालमेघदोहदनिरूपणम् देव्या इसमेत दोहदं विनयामि पूरयामि । इति कृत्वा अभयस्य कुमारस्यान्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति गच्छति, प्रतिनिष्कृम्य गत्वा उत्तरपौरस्त्ये ईशानकोणे खलु वैभारपर्वते 'वेउव्यियसमुग्धारणं समोहणइ' वैफियसमुदातेन समवहन्ति वैक्रियसमुद्धातं करोति, समवहत्य कृत्वा संख्यातानि योजनानि दण्ड 'निम्यारइनिःसारयति यावद् द्वितीयवारमपि चैक्रियसमुद्धातेन समनहन्ति समवहत्य 'सगजिय' सर्जिता-मेघध्वनिसहितां, 'सविज्जुयं' सविद्युतं, 'सफुसियं' सपृ. देवीए अयमेयारूवं दोहलं विणेमित्ति कटु अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ) हे देवानुपिय ? आप स्वस्थ हों और विश्वासयुक्त रहे ? अर्थात् यह तपोनुष्ठानरूप जो आप कष्ट कर रहे हो अब वह न करो मैं निश्चयतः तुम्हारी छोटी माता धारिणी देवी के इस कथित अकाल दोहले की पूर्ति कर दूंगा। इस प्रकार कह कर वह देव अभयकुमार के पास से निकला और (पडिणिक्खमित्ता उत्तरपुरस्थिमेणं बेभारपन्धए वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ) निकल कर ईशानकोण में वैभार पर्वत के ऊपर वैक्रियसमुद्धात से उसने अपने आत्मप्रदेशों को फैला कर बाहर निकाला (समोहणित्ता संखेजाई जोयणाई दंडं निस्सा इ जाव दोच्चपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ) निकल कर उन आत्म प्रदेशों के फिर उसने संख्यात योजन तक देडरूप से रचा-इसी तरह दुवारा भी उसने इसी तरह से वैक्रिय समुद्धात से आत्मपदेशों को फैला कर बाहर निकाला और उन्हें संख्यात योजन तक दंडाकार से परिणमाया (समोहाणित्ता खिप्पामेव सगजियं सफसियं तं पंचवन्न मेहणिणाओवसोहियं दिवं पाउससिरिं विउब्वेड) परिणमाकर फिर उसने शीध्र ही मनोदोहलं विणेमित्ति कटु अभयम्स कुमारस्स अतियाओ पडिगिावमइ) હે દેવાનુપ્રિય! તમે સ્વસ્થ થાઓ અને વિશ્વાસ રાખે. એટલે કે આ જાતનું કઠણ તપ કરીને શરીરને કષ્ટ આપી રહ્યા છો તે હવે આવું ન કરે. ચોક્કસપણે હું તમને ખાત્રી આપું છું કે તમારા નાના (અપર) માતા ધારિણી દેવીના અકાળ દેહદની પૂર્તિ જેમ તમે કહ્યું તેમજ કરી આપીશ. આમ કહીને તે દેવ અભયકુમારની पासेथी विहाय .थयो भने (पडिणिक्खमित्ता उनरपुरथिमेणं वेभारपब्बए वेउव्वियसमुग्धापणं समोहणइ) विहाय थधन शान मां वैमा२ पतन 3५२ કિય સમુદ્ધાત દ્વારા તેમણે પિતાના આત્મસ્થ પ્રદેશને ફેલાવીને બહાર પ્રકટ કર્યા. (समोहणित्ता संखेजाई जोयणाइ दंडं निस्सारइ नाव दोच्चंपि वेउत्रिय समुग्धारण समोहणइ) 8२ ५४टने ४ तेभए सात्मप्रदेशाने ५५ सध्यात For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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