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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका. सू.१३ अकालमेघदोहदनिरपणम् पूरयेयम्, तदा शोभनम् इति, ततः तेन कारणेन खलु अहं हे स्वामिन् ! अस्मिन्नेतद्वो अकालदोहदे अकालमेघदोहदे 'अविणिजमाणसि' अविनीयमाने अपूर्यमाणे अवरुग्णा यावत् आर्तध्यानोपगता ध्यायामि । ततखलु स श्रेणिको राजा धारिण्या देव्या अन्ति के एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य धारिणी देवीमेवमवादीत-मा खलु त्वं देवानुप्रिये ! अवरुग्णा यावदुध्याय-प्रासंध्यानं मा कुर इत्यार्थः, अहं खलु तथा करिष्यामि, यथा खलु तव अस्यैतद्रूपस्य अकालदो. हदस्य मनोरथसंपाप्तिर्भविष्यति, इति कृत्वा धारिणों देवीं 'इटाहि इष्टाभिः और अपने दोहद की पूर्ति करती हैं। यदि इसी तरह की अवस्था-विशिष्ट होकर मैं भी अपने दोहद की पूर्ति करूँ तो उत्तम हो (तएणं हं सामी अयमेयाख्वंसि अकालदो हलंसि अविणिज्जमाणंसि ओलुग्गा जाव अझाणोयगया. झियायामि) इस तरह हे स्वामिन् ? अकाल मेघों में स्नान करनेरूप मेरा दोहला अभीतक पूरा नहीं हो रहा है-इसलिये मैं अवरुग्ण शरीरवाली होकर आतध्यान से चिन्तित हो रही हूं। (तएणं से सेणि एराया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढें सोचा णिसम्म धारिणी देवीं एवं वयासी) श्रेणिक राजाने ज्योंही धारिणी देवी के मुख से इस बात सुना तो उसे हृदय में अवधा. रणकर उन्होंने धारिणी देवो से इस प्रकार कहा-(माणं तुम देवाणुप्पिए भोलुग्गा जाव झियाहि) देवानुप्रिये ? तुम अवरुग्ण एवं अवरुग्ण शरीर बाली बनकर आतध्यान मत करो (अहंणं तहा करिस्सामि महाणं तुम्भं अयमेयास्वस्स अकालदोडलम्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइ) तुम निश्चय रखो मैं ऐसा उपाय करूँगा कि जिससे तुम्हारे इस अकाल दोहले की मनोरथ सिद्धि हो जावेगी [निकहु धारिणी देवी इटाढि पियाहि मणुन्नाहि શેભાને જોતી વિવિધ ક્રીડાઓ કરે છે તેમજ પિતાના દેહદ પુરૂં કરે છે. જે આમ हुँ ५g भास होने ५३ री तो मई सा३ याय. (त एणं हं सोमी अयमेयाख्वंसि अकालदोहलंसि अविणिज्जमाणंसि श्रीलुग्गा जाव पट्टराणोवगया झयायाभि) स्वाभि ! असमये भेषवर्धामा नावानु भा३ । ७ ५३ नथी. मेथी। ३२२॥ भने३। शरी। थईने यिन्तम ५. (त एणं सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढे मोच्चा णिसम्म धारिणी देवीं एवं बयासी) ધારિણીદેવીના મોઢેથી દેહદની વાત સાંભળતાં જ તેને હદયમાં ધારણ કરીને રાજાએ यु-माणं तुम देवाणुप्पिए श्रोलुग्गा जाव झियाहि) पानुप्रिये! तभे ३०१॥ भने ३१शरी२ ने चिन्ता न ४३। (एणं तहा करिम्सामि जहाणं तुम्भं अयमेवारुबस्स अकालदोहलरस मणोरहसंपत्ती भविस्मड़) तमे विश्वास राणे હું સત્વરે એ પ્રમાણે યત્ન કરીશ કે જેથી તમારા અકાળ દેહદની મને રથ સિદ્ધિ થાય, For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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