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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ शाताधम कथाङ्गसूत्रे कोमलोन्मीलने, फुलंच तत् उत्पलं-पगं, फुल्लोत्पलं, कमलश्च हरिणविशेपः, तयो द्वन्द्वे फुल्लोत्पलकमलौ, तयोः कोमलं मुकुमारं उन्मीलनं दल-नयन विकाशो यस्मिन् तस्मिन्, कमलपत्र हरिणनेत्रयोर्विकाशे जाते-इत्यर्थः 'अहा' अथ रात्रि गमनानन्तरं 'पंडुरे' पांडुरे शुक्लीभूते 'पभाए' प्रभाते, प्रातःकाले 'रत्ता. सोगपगासकिसुयमुयमुहगुंजद्धरागबन्धुजीवगपारावयचलणनयणपरहूय सुरत्त लोयण जासुयण कुसुमजलियजलणतबणिजकल सिंहगुलनिगरख्वाइरेगरेहन्तसस्सिरीए' रक्ताशोकप्रकाशकिशुकशुकमुखगुञ्जा रागबन्धजीवकपारावतचरणनयनपरभतमु. रक्तलोचन-जपाकुसुम-ज्वलितज्वलनतपनीयकलहिणुलकनिकररूपातिरेकरेहतराजितस्वश्रीके-रक्ताशोकस्य प्रकाशः कान्तिः, किंशुकं-पलाशपुष्पं च, भुकस्य मुखं च, गुञ्जार्धरागं च बन्धुजीचवं च पारावतस्य= कपोतस्य चरणनयने च, परभृतस्य-कोकिलस्य सुरक्तं लोचनं च, जपाकुसुमं च, ज्वलितज्वलनः अदीप्ताग्निश्च, तपनीयकलश:सौवर्णघटश्च, हिगुलको वर्णविशेषः, तस्य निकरश्व-समूहः, एतेषां रूपातिरेकेण रूपसादृष्ये न राजमाना स्वा स्वकीया श्रीवर्ण लक्ष्मीर्यस्य स तथा तस्मिन्, रक्तमण्डल(फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि)-हरिण विशेष के-नेत्र अच्छी तरह से खिल चुके थे (अहा) रात्रि हटने के बाद (पंडुरे पभाए) जब धीरे धीरे प्रातः काल बिलकुल पंडुरस (फेवद)स्पष्टरूप से चमकने लगा था और जब (रत्तासोगपगास किसुय, सुय मुह गुंजद्धराग, बंधुजीवग, पारावयचलणनयण, परहत मुरत्त लोयण जाँसुयण कुसुम, जलिय जलण, तवणिजकलस हिंगुलय निगर रूबाइरेगरेहंत सस्सिरीयए) रक्त अज्ञोक की कान्ति के, पलाश पुष्प किंशुक के मुख के गुजार्द्ध के राग के बंधुजीवक के, पारावत (कबूतर के चरण और नयन के, कोयल के सुरक्त लोचन के, जपाकुसुम के प्रदिप्त अग्नि के, सौवर्ण कलश के, तथा हिंगुल के समूह के रूप के (फुल्लुप्पल कमल कोमलुम्मिलियंमि) तथा रिशु विशेषना-नेत्र सुंदर शते पायां तi, (अहा) रात्रि ५सार थतi (पंडुरे पभाए) न्यारे धामधीमे २५८३५ प्रमात शन थयु, अने (रत्तासोगपगास, किंमय, सुय मुह गुंजद्धगग, बधु जीवग, पारावय चलणनयण, परहत-सुरत्त लोयण जासुयण-कुसुम, जलिय-जलण, तवणिज्ज-कलस-हिंगुलय निगर स्वाइरेगरेहंत सस्सिरीए) न्यारे २४त અશેકની કાન્તિ જેવું, કેસૂડા જેવું, ગુંજાઈ રંગ જેવું બંધુજીવક જેવું કબૂતરના ચરણ અને આંખ જેવું, કેયલની ખૂબ લાલ આંખ જેવું, જપા પુષ્પ જેવું, પ્રજવલિત આગ્ન જેવું, સેનાના કળશ જેવું For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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