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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे विशेषतो वयमेतत् 'इच्छयपडिप' ईप्सित-प्रतीप्सितमेतत् सर्वथा वाञ्छनीयमेतत् 'जं णं तुब्भे वदह' यत्खलु यूयं वदथ, 'इति कट्टु ' इति कृत्वा = इत्युकत्त्वा सा तं स्वप्नं 'सम्मं' पडिच्छइ' सम्यक् प्रतीच्छति = ईप्सिततया स्वीकरोति प्रतिष्य= स्वीकृत्य श्रेणिकेन राज्ञा 'अब्भणुन्नाया समाणी' अभ्यनुज्ञाता सती= आज्ञप्तासती पतिनिदेशमादायेत्यर्थः, 'नाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ मद्दास नानामणिकनकरत्नभक्तिचित्राद=नानाविधमणिकनकरत्नरचना चित्रि ताद् भद्रासनात् 'अन्' अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय यत्रैत्र स्वीयं शयनीयं = निजा शय्या तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्वकीये शयनीये 'निसीयइ' निषीदति = उपविशति, निषद्य = उपविश्य एवमवादीत = वक्ष्यमाणप्रकारेण स्वमनस्युक्तवतीसंशयका लेश भी नहीं है । ( इच्छियमेयं देवाणुपिया) हे देवानुप्रिय ! यह स्वप्न फल वाञ्छिनीय है । [पडिच्छियमेयं देशणुपिया] हे देवशनुप्रिय । यह विशेषरूप से वाञ्छनीय है । ( सच्चेणं एसमट्ठे जं णं तुब्भे बदह त्तिकहु तं सुमिणं सम्मं पडिच्छर ) नाथ - जो बात आप कह रहे है वह सर्वथा सत्य है ऐसा कहकर वह रानी मुझे सर्वोत्तम स्वप्न आया हैइस बात को स्वीकार करती है (पड़िच्छित्ता सेणिएणं रन्ना अन्भणुष्णाया समाणी) स्वीकार करके फिर वह श्रेणिक राजा से आज्ञापित होकर ( णाणामणिकणगर यणभत्तिचिनाओ भद्दासणाओ ) उस अनेक विधमणि, फनक एवंरत्नोंकी रचना से विचित्र बने हुए भद्रासन से (अब्भुट्ठेइ ) उठी- और (अब्भुट्टिया) उठकर (जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छई) उठकर जहां अपनी शय्या थी वहाँ पर गई । ( उवागच्छत्ता ससि सयणिज्जंसि निसीयइ) जाकर वह अपनी उस शय्या पर बैठ गई । [ निसीहे हेवानुप्रिय ! या स्वप्ननु जरिछनीय छे. (पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ! श्मा सविशेष३ये छिनीय छे. ( सच्चेणं एसमट्ठे जंणं तुभे वदहत्ति कट्टु तं सुमिणं सम्मं पडिच्छइ) हे नाथ ! ने बात तमे उही रह्या छ। તે એકદમ સાચી છે, આમ કહીને રાણીએ પેાતે જોયેલું સ્વપ્ન સાચું છે, એ વાત स्वीरे छे. (पडिच्छित्ता सेणिएवं रन्ना अन्भणुग्णाया समाणी) स्वीअर उरीने ते श्रेणि शन्न पासे आज्ञा सर्धने ( णाणा मणिकणगरयण भत्ति चित्ताओ भासणाओ) ने प्रारना भणि सुवर्ण भने रत्ननी रथनाथी विभित्र लागता “द्रासन उपरथी (अब्भुट्टेइ) अली थ, मने (अम्भुट्टित्ता) अली थाने ( जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छई) न्यां पोतानी शय्या हुती त्यां गई. ( उवागच्छित्ता सरांसि सर्याणज्जंसि निसीयइ) ने ते पोतानी शय्या उपर मेसी गई. (निसी For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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