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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ शाताधर्म कथाङ्गसूत्रे विपुल बलवाहणे रजवती रायो भविस्सइ । तं उराले ण तुमे देवी सुमिणे दिट्टे जाव आरोग्गतुदिदीहाउयकल्लाण कारए णं तुमे देवी! सुमिणे दिट्टे त्ति कई भुजोर अणुव्हेइ ।।सू० ८॥ टीका-'तएणं सेणिए' इत्यादि । 'तएण' ततः देव्याः स्वदृष्ट स्वप्न कथनानन्तरं खलु-निश्चयेन श्रेणिको राजा धारिण्या देव्याः अंतिए' अन्तिके समीपे तन्मुखादित्यर्थः, एयम,' एतमर्थकदृष्टस्वप्नस्वरूपं 'सोच्चा' श्रुत्वाकर्णपथे कृत्वा 'निसम्म' निशम्य हृदिधृत्वा हट्टतुटे' हृष्टतुष्टः' 'जाव' यावत्- हर्षवशविसपंद्रहृदयः 'धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुऊसवियरोमकूवे' धाराहतनीपसुरभिकुसुमचंचुमालइयतनूच्छ्तरोमकूपः धारया=वृष्टिधारयाहतानि अाहतानि यानि नीपस्य कदम्बस्य सुरभिकुसुमानि-सुगन्धितपुष्पाणि तानीव चंचुमालइया पुलकि तार्थक 'देशीयोऽयं शब्दः' पुलकिता तनुः-शरीरं, तस्मिन् उच्छ्रि. ता:स्थूलतां गता शेम्णां कपाः रोमनिर्गमस्थानानि यस्य स तथोक्तः, तथ । भूपोऽसौ तं स्वप्नं 'ओगिण्हइ' अवगृह्णाति-स्वमार्थमशेषनिरपेक्ष सामान्यरूपार्था तएणं सेणिए राया इत्यादि टीकार्थ-(तएणं) धारिणीदेवीने जब अपना दृष्ट महास्वप्न कह दिया तब (सेणिए गया) श्रेणिक राजा (देवीए अंतिए) उस देवी के मुख से (एयम टुं साच्चा) इस महा स्वप्नरूप अर्थको-सुनकर (णिसम्म) तथा हृदय में धारणकर (हतुडे) हर्षसे अपार संतुष्ट हुए। यहां यावत् पद “चित्तमाणदिए पीइ. मणे-परमसोमणास्सिये हरिसबसविसप्पमाणहियये" इस पाठका ग्रहण हुआ है , (धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुअस विय रोमकूवे) जिस प्रकार दृष्टि की धारा से कदम्बके पुष्प विकसित होते हैं। उसी प्रकार रानीके रोम विकसित हो गये। राजाने उसी समय (तं सुमिण तएणं सेणिए राया इत्यादि थ-(त एणं) न्यारे धारिणी हवीये पोते नये मडा स्वस धुत्यारे (सेणिए राया) श्रेणि: AM (देवीए अंतिए) ते वीना भुमथी (एयमढे सोचा) २ महास्वप्न३५ म सालमीन (णिसम्म) तेभा (यमा धारण शने (हठ्ठ तुट्टेपंथी भूम०८ संतुष्ट थया. मी यावत् ५४५ "चित्तमोणं दिए पीइमणे परम सोमणास्सिये हरिसवसविसप्पमाणहियये" २५४ स्वी॥२वामां मा०यो छ. (धाराहयनीव सुरभिकुसुम चंचुमालइयतणुअसवियरोमकवे) हेम वर्षानी ધારાઓથી કદંબનાં પુષ્પો ખીલે છે, તેવી રીતે રાણીના રુવાટાં વિકસિત થયાં. રાજાએ ते समये (तंसुमिणं ओगिण्हइ) अवाड शानवडे सामान्य ३५ ते स्वस विष For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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