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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं, चंद्रमा तो कलंकयुक्त होता है, जब कि इनमें तो एक भी दोष नहीं दिखता। तो फिर ये कौन होंगे ?' इन्द्रभूति इन्हें पहिचानने की पूरी कोशिश करते हैं । इस हेतु वे अपने पढ़े हुए दर्शन शास्त्रों का मन में पुनरावर्तन करते हैं । उनमें से तुरन्त खोज निकाला कि 'हां, ये तो जैनों द्वारा मान्य सर्व दोषों से रहित अनंत गुणों से संपन्न चौबीसवें तीर्थंकर होने चाहियें ।' ढूँढ तो निकाला परन्तु अब घबराए । 'अरे ! इनके साथ मुझे वाद करना है ?" मिथ्यात्व की सुलभता :- - प्रभु को पहिचाना तो सही, परन्तु प्रमाणभूत मानने में अभी देर है । विलम्ब क्यों ? मिथ्यात्व टलने में विलम्ब के कारण | पुण्य से जिनेश्वर देव का साक्षात्कार हो, परन्तु मति 'सु' न बने तब तक क्या होवे ? पूर्व भव की किसी भूल से यदि मिध्यात्व मोहनीय कर्म का बंधन हो गया हो तो उसके विपाक के समय कैसी दशा होती है ? मिथ्यात्व बंधन के लिये दूर भी कहां जाना पड़ता है ? देश काल के नाम पर, अथवा विज्ञान के विकास युग के नाम पर, श्री सर्वज्ञ भगवान के वचन में शंका और श्रश्रद्धा की नहीं कि तुरंत मिथ्यात्व श्रात्मा के साथ चिपका नहीं । मिथ्यात्व मत की दिखाई देने वाली सुशोभित वस्तु से स्वमत की निंदा की नहीं कि फलस्वरूप मिथ्यात्व की प्राप्ति हुई नहीं । श्री संघ साधु और साधर्मिक का विनाश करो श्रथवा किसी को धर्म, तप, अथवा वैराग्य के रंग में से पतित करो कि लगा मिथ्यात्व | इन्द्रभूति अभी तक मिथ्यात्व में फंसे हुए होने से अनंत गुण-निधान परमात्मा के सामने होते हुए भी अभी तक इनकी शरण का स्वीकार नहीं करते और मन ही मन घबरा रहे हैं, पश्चाताप कर रहे हैं, कि अरे ! मैं यहां कहां सेना फँसा ? रत्नजडित सुवर के सिंहासन पर विराजमान ये सर्वज्ञ, कोटिकोटि देवताओं से सेवित ये जिन, और इनके सामने में वादी बनकर आया हूं ? यह एक वादी न जीता गया होता तो क्या बिगड़ने वाला था ? यह तो मेरी मूर्खता है कि मैंने एक कील के लिए अपने चारों श्रोर व्याप्त कीर्ति रूपी प्रासाद For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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