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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .૨૪ इसमें वस्तु प्रत्यक्ष कैसा ? यह तो हेतु से होने वाले एक प्रकार के वस्तुसाधक अनुमान जैसा है, 'यह घड़ा है, क्योंकि पूर्व संकेत काल में ऐसे ही पदार्थ में मुझे प्राप्त पुरुष ने घट - संकेत करवाया था । भले अधिक अभ्यास में इसका पता न चले । इतना जीव को छोड़कर अन्य बाहृय निमित्त से होने वाला ज्ञान वस्तुतः परोक्ष ही है । केवलज्ञानी श्रात्मा से नारकों का वास्तव प्रत्यक्ष होता है ।. - (२) उत्कृष्ट पापों की सजा कहां ? ऐसे पाप का फल भोग कहां ? पशु कोट श्रादि श्रवतार में नहीं, क्योंकि पशु श्रादि को भी अच्छी हवा, पानी, प्रकाश वृक्षादि छाया व श्राहारादि सुख मिलते हैं । इनमें से जरा भी सुख न हो वैसे और सतत छेदन, भेदन, दहन, पाचन, शिलास्फालनादि दुःख ही भोगते हों ऐसे कौन ? तो कहेंगे नारक ही । (३) व्यवहार में एक खून की एक बार फांसी मिलती है तो सहस्त्रों खून करने के अपराधों के फल कहां ? कहना होगा, - एक नरक ही ऐसा स्थल है जहां गए पापी को कटा जाने पर भी मृत्यु नहीं होती है, श्रतः फिर फिर वह शरीर खंड होता हुआ बार बार छेदन - भेदन सहता है । (४) असत्य भाषण के हेतु भूत भय, राग, द्व ेष, मोह, अज्ञान जिन्हें नहीं ऐसे सर्वज्ञ प्रभु नारक विद्यमान होने का कहते है, यह असत्य कैसे हो सकता है ? तब 'परलोक में नारक नहीं' इस वेद वचन का अर्थ क्या ? इतना ही कि नारक मर कर तत्काल दूसरे हो भव में नारक नहीं होते । इस समझाइश से प्रकंपित मान गए और अपने ३०० के परिवार के साथ प्रभु के शिष्य बने । For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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