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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र०-इसे तो माया-रचना क्यों न कहें ? उ०- तो भी ऐसी रचना करने वाले देव सिद्ध होंगे । मनुष्य की यह रचना-सामर्थ्य नहीं। (३) जैसे उत्कृष्ट पाप का फल नारक हो कर भोगते हैं वैसे उत्कृष्ट पुण्य फल का भोक्ता कौन ? देव ही। दुर्गन्धपूर्ण धातु से युक्त शरीर, रोग, जरा आदि विडम्बरणा वाला मनुष्य उत्कृष्ट सुख-भोगी नहीं कहलाता। (४) पूर्वजन्म के स्मरण वाले के कथन से भी देव सिद्ध होते हैं, जैसे किकई देशों में भ्रमण करके आए हुए के कथन से तथाकथित देशों और उनकी वस्तुओं का परिचय होता है ।। (५) विद्या-मन्त्र की साधना से इष्टसिद्धि होती है वह देवप्रसाद से ही होती है, जैसे कि राजा की कृपा से इष्टसिद्धि होती है। (६) किसो व्यक्ति में कभी-कभी विचित्र बकवाद आदि विकृत चेष्टाएं दिख ई देती हैं जो उसमें साधारण परिस्थिति में नहीं होती हैं। ऐसे असंभवित विकार किसी देव के प्रवेश से ही होते हैं। जैसे कि सीधी गति से चलता हुआ यांत्रिक वाहन जब विचित्र गति धारण करता है तब अनुमान होता है कि उसमें बैठा हुअा व्यक्ति उसमें परिवर्तन लाता है । इस प्रकार शरीर में प्रविष्ट देव असाधारण चेष्टा कराता है। (७) देव-मन्दिर में कभी चमत्कार, मनुष्य के विशिष्ट स्वप्न, व उसे विशिष्ट दर्शनादि भी देवसत्ता सिद्ध करते हैं । (८) 'देव' यह व्युत्पत्तिमत् शुद्ध पद है जो सार्थक ही होता है । अतः इससे वाच्य देव होने चाहिये। प्र०-वह तो बड़े ऐश्वर्यवान् व्यक्ति पर घटित होता है न ? कहते हैं, 'भाई ! यह तो देव-तुल्य है ।' उ०-प्रथम कोई मुख्य वाच्य-अर्थ होता है, फिर उपचरित अर्थ दूसरे स्थान में बिठाया जाता है । मूल ही की प्रतिलिपि होती है। यदि मूल ही नहीं For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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