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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचार्य जिनेश्वरसूरि ओर बुद्धिसागररि: जैन साहित्य के रचयिता और प्रभावक आचार्यों में इन दोनों बन्धु आचार्यों का स्थान अत्यन्त उच्च व महत्वपूर्ण है । यह आपही का परमोपकार है कि-जैन मुनिगण आज वसति में दिखाइ दे रहे है । पूर्वकाल में तो जैन मुनियों को अन्य की भांति अरण्यवास करना पडता था, क्यों कि नगरों में चैत्यवासीयों का प्राबल्य था, इस का अर्थ पाठक यह न करें कि बहुत पुरातन समय से ही चैत्यैवास चला आ रहा था. पर बीच में इनका प्रभाव जैन समाज पर अधिक हो गया था । बढते बढते यहां तक बढ़ा था कि, कई नगरों में तो जैन सुविहित मुनियों को निवासार्थ स्थान तक मिलना असंभव सा हो गया, जिस समय का हाल पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया जा रहा है, वह समय गुजरात के लिये अत्यन्त चिन्तनीय था, क्यों कि उसकी राजधानी भारतप्रसिद्ध ३२. चैत्यवासोत्पत्ति की निश्चित तिथि बतलाने के साधन नहीं है, परंतु वज्रस्वामीजी के समय में इसका अस्तित्व पाया जाता है । पादलिप्त सूरिजी के समय में भी कुछ आभास मिलता है। धर्मसागर अपनी पट्टावली में इसका उत्पत्ति काल सूचित करते है, पर इतः पूर्व इस की प्रसिद्धि सार्वत्रिक हो चुकी थी। आचार्य महाराज श्रीहरिभद्रसूरिजीने इस पर अनेक भीषण शाब्दिक प्रहार " संबोध प्रकरण " में किये है, जो इसका महान् प्रचार सूचक है । तदनंतर आचार्य श्री जिनेश्वरसूरिजीने इन्हें दुर्लभराज की सभा समक्ष शास्त्रार्थ कर पराजित कर "खरतर विरुद" लिया। इनके बाद आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि, श्री जिनदत्तसूरि, श्री जिनपतिसूरि आदि खरतर गच्छीय विद्वानोंने ही इन लोगों के सामने महान् आंदोलन चलाया, बड़ी बड़ी सभाओं में जाकर शास्त्रार्थ किये और इनकी मान्यताओं के विरुद्ध अनेक ग्रन्थ निर्माण किये, जो आज तक उस समय की, विषम समस्या के परिचायक है। आज का यतिसमाज चैत्यवासीयों का अवशेष मात्र है । हम यहां इस विषय पर अधिक न लिख कर पाठकों से निवेदन करेंगे कि वे "जैन साहित्य और इतिहास" पू. ३४७ - नामक ग्रन्थ देखे । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020335
Book TitleGandhar Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1944
Total Pages195
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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