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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणघर सार्द्ध शतकम्। ॥ १६ ॥ www.kobatirth.org को प्रोत्साहित किया । क्रमशः विमलवसही" नामक वृहत्तर जैन मंदिर निर्माण हुआ, जो भारतीय कला का एक उत्कृष्ट नमूना है । इसी मंदिर में १०८८ में आचार्य वर्द्धमानसूरिजीने प्रतिष्ठा की, ऐसा अनेक पुरातन ऐतिहासिक पट्टावलीओं से सूचित होता है, यद्यपि इस विषय के लोगों ने मतभेद खड़ा कर रखा है, पर वह निःसार है। जिस विषय को पुरातन ऐतिहासिक प्रमाण सिद्ध कर रहे हैं, उसमें शंका करना कदाग्रह नहीं तो और क्या हो सकता है ? १०८८ तक सूरिजी की विद्यमानता में शंका की जा रही है, परंतु वाचको को निम्न वृतान्त से विदित हो जायगा कि, तब सूरिजी विद्यमान थे । दूर्लभ के समय में चैत्यवासीओं के शास्त्रार्थ में आप भी थे, आप का स्वर्गवास आबू में ही हुआ। वर्द्धमानसूरिजी जैसे उत्कृष्ट कृयापात्र थे, वैसे ही उच्च कोटिं के विद्वान ग्रन्थकार मी थे । आपने विक्रम संवत् १०५५ में हरिभद्रसूरि विरचित, " उपदेशपद पर वृत्ति" निर्माण की, और " उपमिति भवप्रपञ्च नाम समुच्चय “ उपदेश भाषा बृहद्वृत्ति" आप ही की शुभ कृतियें हैं। आप का प्रतिमालेख सं. १०४५ का कटिग्राम उपलब्ध होता है । " २९. दक्षिण भारतीय कनाडी भाषा के शिलालेखों और ग्रन्थों में बसदि या वसति शब्द का प्रचार विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है। वसति शब्द संस्कृत तत्सम (वस्ती) का तद्भवरूप मात्र है, वसती शब्द भी वसति का ही योतक है। खासकर यह शब्द जैन मंदिरों के लिये प्रयुक्त देखा गया है, ऐसा इ० स० १५५० बोम्मरस विरचित चतुरास्य निघण्टु " से फलित होता है। वसहि शब्द का पुरातन उल्लेख इ० स० ११८१ के श्रवणबेलगोला के शिलालेख में मिलता है, प्राकृतभाषा के कोषों में वस या वसदि शब्द पाये जाते हैं । Ex " ३०. " ततो वर्द्धमानसूरिः सिद्धासविधिना श्रीअर्बुदशिखरतीर्थे देवत्वं गतः जिनपालोपाध्याय रचित गुर्वावली " पुरातन खरतर गच्छ पट्टावली " " ३१. पीटर्सन रिपोर्ट वॉ. 3. P. 4. प्रभावक चरित्रादि " अनेक प्रन्थों से इनका १०८८ में रहना सिद्ध हैं । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका । ॥ १६ ॥
SR No.020335
Book TitleGandhar Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1944
Total Pages195
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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