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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org को इस महत्त्वपूर्ण वृत्ति का निर्माण किया. जैसा कि अंतिम प्रशस्ति से सूचित होता है। उपरोक्त वृत्ति यद्यपि वृहद्वृति का रूपान्तर मात्र है, तथापि इसमें मौलिकता का आनंदानुभव होता हैं । प्रणेता ने प्रसंगानुसार अपनी प्रासादिकता का परिचय बडी ही उत्त रीति से दिया है, इतने १२००० हजार ग्रन्थ को अति संक्षिप्त कर [ २३६९ श्लोक में ] प्रवाह को तथाविधि सुरक्षित रखना कोई साधारण कार्य नहीं, पर एक महान कठिन और अध्यवसायी विद्वान ही पूर्णकर सकता है । हर्ष की बात है कि मुनिजी सागर को गागर में भरने के कठीन कार्य में सफल हुए। हमने इस वृति का अध्ययन किया, तब विदित हुआ कि सचमुच में प्रणेता की प्रतिभा अद्वितीय थी । इतिहास विषयक प्रस्तुत टीका में बहुसंख्यक ऐसे उल्लेख हैं. जो जैन इतिहास में बडा महत्त्व रखते है, और कई ऐसे कवि हैं. जिनके सुभाषितों का संग्रह किया गया हैं परंतु उनकी ग्रन्थादि साहित्यिक सम्पत्ति अद्यावधि अनुपलब्ध है, मालूम होता है काल की गति में विलीन हो गयी होंगी। पृ० ६७ में " मोक्षराज " नामक कवि का एक पद्य उद्धृत किया गया है, पर जांच पड़ताल करने पर विदित हुआ कि इस कवि का उल्लेख अन्य कहीं पर नहीं हुआ । इनके जन्म-कार्य, अध्ययन, साहित्य - प्रगति आदि ऐतिहासिक बातें जानने के साधन नहीं, काव्याभ्यासी प्रेमियों से निवेदन करेंगें कि वे इस विषय पर खोजकर नूतन प्रकाश डालें, हम भी इस विषय में प्रयत्नशील हैं। सर्वदेव गणि-जो मूल ग्रन्थकार के पाठक थे—के विषय में प्रस्तुत वृत्ति में कहा गया है कि, " आपका स्तूप स्तंभतीर्थ निकटवर्ति " शाखीय ग्राम" में अवस्थित है, जिसे मिध्यादृष्टि भी बड़े आदर से पूजते हैं. अभी विद्यमान है " (पृ. ३८ ) इससे विदित होता है कि सर्वदेव गणि का स्वर्गवास वहां पर हुआ होगा । परन्तु वह स्तूप वर्त्तमान में वहां पर है या नहीं ? यदि हैं. तो किस अवस्था में ? और वह नगर अभी किस हालत में है २ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020335
Book TitleGandhar Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1944
Total Pages195
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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