SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AMSUGARCAME वान् साधुके द्वेषी सुसाधुओंकी पूजाको नहीं सहतेहुए ऐसे वेषधारी कंटकतुल्यरोकेगा ३ तीसरे खनेका ६ फल ॥ जैसे खच्छजलभरीभई वावडीको देखके काकप्रीति नहींकरहै ऐसे ज्ञानक्रियायुक्त साधुओंको | अपने गच्छमें देखकेभी साधु प्रीति नहीं करेंगे ॥ परन्तु जिस गच्छमें शिथिलाचारवाले साधु हैं वहां जावेंगे। अपनेको पंडित मानते हुए ऐसे ४ यह चौथेखनेका फल ॥ जातिस्मरणवगैरहरहित मृतसिंहतुल्य जिनशासनका पराभव नहीं होगा परन्तु परदर्शनी भय करेंगे ॥ ५ यह पांचवेखनेका फल ॥ जलाशयमें कमलकी उत्पत्तियुक्त है अपवित्रभूमिमें नहीं उत्पन्नहोवेहै ॥ इसीतरहसे धर्मकी उत्पत्तिभी उत्तम कुलमें युक्त है। अधमकुलमे युक्तनहीं। परन्तु धर्मकीउत्पत्ति कालप्रभावसे उत्तमकुलमें कमहोगा अधमकुलमें धर्म कार्य करनेवाले विशेष होंगे ६ छटे खनेका फल जैसे कोई मंदबुद्धि खेतीकरनेवाला धानको खारी जमीनमें वावे वैसा मूर्खपुरुष पात्रअपात्रको नहीं देखके पात्रकी बुद्धिसे कुपात्रको दान देगा यह ७ सातवें खानेका है फल ॥ अब आठवे खप्नेका फल कहते हैं सोनेके कलशसरीखा ज्ञानादिगुणयुक्त साधु थोडे होयंगे उन्होंकी । पूजा प्रभावना विशेष नहीं होगा परन्तु जो बाह्य आडंबरवाले ज्ञानक्रियारहित साध्वाभासोंको लोग पूजेंगे। गीतार्थ साधुभी हीनाचारियों के साथ मिलके चलेंगें ॥ जैसे बहुत गैहले लोगोंको देखके सजनलोग उन्होंमें मिला| हुआ जानते भी अपने जीवतव्यकी रक्षाके वास्ते गहला भया वैसा, वह कथा कहते हैं पृथ्वीपुरनगरमें पूर्ण ANGACADARASAGAR R ICA For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy