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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जितने अपना मस्तक काटनेके लिये उद्यमवान् हुआ ॥ उतने उर्वशीने खगकी धाराबांधी परन्तु राजाका सत्व नहीं |बांधसकी ॥ बाद राजा खगकी धारा बन्ध होनेसे उदासभया ऐसा कण्ठनालकी विडंबनाकरनेवाला नया 3 दानया खा लेता हुआ परंतु यह राजा थोड़ाभी सत्वसे नहीं चला वाद उनदोनो स्त्रियोंने अपनारूप प्रगटकरके अत्यन्तआदरसे जय जय शब्द कहतीहुई ॥ और इसप्रकारसे बोली ॥ जय त्वं ऋषभस्वामिकुलसागरचन्द्रमाः ॥ जय सत्ववतां धुर्यः जय चक्रीशनंदनः॥१॥ FI अर्थः॥ श्रीऋषभदेवःखामीका कुलरूपसमुद्र के उल्लासकरनेमे चन्द्रमाःसदृश और सत्ववालोंमे प्रधान ऐसा हे | प्रभो जयवंता होवो ॥ हे चक्रीशनंदनः जयवंता वर्तो ॥ अहो इति आश्चर्ये आपका धैर्य आश्चर्य कारीहै। तुलारा मनकानिश्चयबहुतही दृढहै । जिसने अपने विनाशमे भी अपनेव्रतका त्याग नहींकिया ॥ हे महाराज देवेन्द्रः द अपनीसभामें देवोंके आगे आपके अतुलसत्वकी विशेष प्रशंसा करी॥ हम नहीं मानतीभई खर्गसे आई आपकों|8 निश्चयसे चलाना प्रारंभ किया ॥ परंतु आपको कोई भी चलाने को समर्थनहींहै हेजगत्प्रभु कुलावतंसकः? हे वीर| आपहीसे यह पृथ्वी रत्नगर्भा ऐसा सत्य नाम धारतीहै । इसप्रकारसे राजाकी स्तुतिकरतीथी उतने वहां देवेन्द्रः । ४ आया ॥ जय जय शब्द उच्चारण कर्ताहुआ पुष्पोंकी वृष्टि करी ॥ तब प्रतिज्ञासे भ्रष्टभई उर्वशीको इन्द्रने उपहा-18 ससहित देखी। तब इन्द्रःके आगे राजा का गुण कहतीहुई ॥ इन्द्रःभी सूर्ययशा राजाको प्रधान मुकुट कुंडल, *********** ॐ For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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