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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तोहम पिताके वचनसे विमुख भई खच्छन्दचारी राजाको नहीं वरा इसवक्त में पूर्वकर्मके परिपाकसे तुमको भर्तारः | किया है | इससे हमारे संसारका सुख और ब्रह्मचर्यः सब अकस्मातगया ॥ जो स्वाधीन पुरुष स्त्रीका योगहोवे तब संसारिकसुख होय है नहींतो रातदिनकायोगजैसा विडंबनाही होयहै ॥ हे खामिन् पहले श्रीऋषभदेवः स्वामीके आगे तुमने तो मेरा वचनकरना अंगीकारही कियाथा मैं कोई वक्त तुलापरीक्षाकेअर्थ तुमारेपास कुछ मागती परंतु आपतो हाहा इति खेदे थोडे काय के वास्ते क्रोध वश होगये ॥ हे नाथ मै शील और सुखसे ( दोनोसे) भ्रष्टभई इसलिये मेरेको अग्निःकी चितामें ही प्रवेशकरनाकल्याणकारी है | ऐसा उर्वशीकावचनसुनके उन्होंमें मग्नमन जिसका ऐसा राजा अपने वचनोंको याद कर्ताहुआ बोला ॥ हेप्रिये ! श्रीऋषभदेवः खामीने जो कहा और भरतचक्रवर्तीपिताने जो किया उसपर्वका नाश उन्होंका पुत्र होके मैं कैसा करूं हे हरिणा क्षि १ । मेरी सब पृथ्वी, भंडार और हाथी, घोड़ा वगेरेहः सब तैं ग्रहणकर ॥ परंतु जिससे सुखहोवे है ऐसा धर्मका नहीं करना वह अकृत्य मेरे पास मत कराव अर्थात् धर्म नहीं छोडूंगा । बाद उर्वशी भी थोडी हसके कोमल वाणी से बोली || हे राजन् ? आप जैसें का सत्य वचनही सदाचार है जिसकारणेसे जिसपापीने अपने अंगीकार किये हुबेका विघातकिया वह अपवित्र कहाजावे ॥ उसके भार से पृथ्वी भी तकलीफपावेहे ॥ हे नाथ ? जो तुमसे इतनाही कार्य नहीं सिद्धः होवे तो राज्यादिकः देना कैसे सिद्धहोगा | तुझारे वास्ते मैंने पिता विद्याधर For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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