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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चातुमासिक ॥ १८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पास मांगती हुं तब राजाभी उसकेविनयसे रंजितहोके उसचोरको जीवितदानदेके रानीको सोंपदिया रानी उसचोरको अपनेघरलेजाके सामान्यभोजनकराके कहा मेनें तेरेकुं जीवितदानदिया और अब चोरीकरनानहिं तब यह चोर बहुतखुसीहुवा तव सोकों इसके कहनेलगी अरी तेनें तो इसका कुछमी सत्कार नहिकीया हमनेतो लाखोधनखर्चके इस का सत्कारकीयाहे उसवक्त उन्होके परस्परउपकार केविस यमें बहुतविवाद होनेसे राजाने चोरको बुलाके पूछा की तेराउपकार किसने जादाकीया चोरबोला हे महाराज ४ दिन तक मैंने मरनेकेभयसे कुछभी भोजनादिककासुख नहिमाना आज इस महारानीकेमुखसे अभय - दान सुननेसे परमसुखका अनुभवकरताहुं इसीकारणसे हेमहाराज ? आज ५ मीरानीका सबसे जादा उपकारहे ऐसासुनके राजादिकोने पांचमी रानीकी प्रशंसा करके पटरानीकरी," इसकारनसे सर्वदानोंमे अभय दानश्रेष्ठकहा इसीसे सुश्रावकों को इसपर्युषणापर्व्व में खांडना पीसना वस्त्रधोना वगेरह आरंभवर्जना तेली लोहार भडभुंजे ओर भी कठोरकर्मकरनेवालोसे वचनसे या धन खर्च के भी आरंभछोडाना सक्तिप्रमाणे कैदीमी छोडाना अमारीघोसणाकराना जिसकिसप्रकारसे जीवरक्षा करना ? दूसरेआश्रव के त्याग में मृषा वचनइसपर्व्व में नहिकहना गालीप्रमुख नहिदेना सर्वथावचनसुद्धिकरनी २ तीसरे आश्रव के त्याग में चौरीका सर्वथा त्याग - कराना द्रव्य प्राणीयोंका वाह्यप्राणरूप होनेसे उसका लेना मरनेरूपकष्टका हेतु है ३ चोथे आश्रवके त्यागमें पर्युषण For Private and Personal Use Only व्याख्यानम्. ॥ १८ ॥
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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