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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दीवा० व्याख्या० 11 20 11 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह व्रत करूं मुनिः बोले रोहिणी नक्षत्र के दिन वासपूज्यतीर्थंकर की पूजा करके सातवर्ष सातमहीनातक उपवास करना इसप्रकार से शुभ ध्यान युक्त तपके प्रभावसे तेरे शुभ होगा । बाद तप पूर्ण होनेसे उद्यापनकरना | जिससे तेरा दुःख जावेगा सुगन्धराजके जैसा यह सुनके दुर्गन्धा मुनिः से पूछती भई हे भगवन् सुगन्ध राजका त्तान्त कृपाकरके कहो तब मुनिः बोले सिंहपुरनगर में सिंहसेन राजा उसके कनकप्रभा नामकी रानी उन्होके दुर्गन्ध नामका पुत्र था वह क्रमसे यौवन पाया परन्तु किसीके मनमें रुचे नहीं एकदा श्रीः पद्मप्रभतीर्थकर वहां पधारे तीर्थंकरको वंदना करके कुमरने अपना दुर्गन्धका कारण पूछा तब श्रीसर्वज्ञ बोले नागौरनगर से बारह कोस दूर एक नीलनामका पर्वत है । उसपर एक शिला हैं शिलापर एक मुनिः मासक्षमणादि तप करे है तपके प्रभावसे वहां कोई मृगवगैरह को नहीं मार सके है वहां लुब्धक मुनिःपर ईर्षा करेहैं एकदा मुनिः ग्राम में पारनेके वास्ते गया उससमय लुब्धकने शिलाके नीचे अग्निः जलाके शिलाकों अत्यन्त उष्ण करी मुनिः पारनाकरके शिला ऊपर आकर रहा बहुत तापसे शुद्ध ध्यानसे वह ऋषिः केवलज्ञान पाके मोक्षगया । वह लुब्धक ऋषिःघातसे कोढ़ीभया । कहा है ऋषिहत्याकरो जीवो, दुःखं भुञ्जति भूतले । संसारसागरे घोरे, पीड्यते च पुनः पुनः ॥ १ ॥ अर्थ:- ऋषिः हत्या करनेवाला जीव पृथ्वीपर दुःख भोगवता है घोरसंसारसमुद्र में वारंवार पीडितहोता है For Private and Personal Use Only रोहिणी कथा. ॥ ८७ ॥
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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