SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीप में मिथ्यात्वी लोग रहते थे उन्होंकी कन्याओंके साथ बैठे उठे फिरे ब्राह्मणों के पास कथाभी सुने यद्यपि | जैनधर्मपाले तथापि संगत के बससे औरधर्मोपरभी आदर करती थी चैत्र, ज्येष्ठ श्रावणादि महीनों में गौरी, गणपति वगैरहका पूजन करनेसे सुंदरनर की प्राप्तिः धनधान्यकी प्राप्तिः ऐसी वार्ता उसको रुचे ॥ बाद एकदा कुमारीने मनमें विचार किया जैनधर्म में बीतरागदेव है वह कुछभी सुंदर असुंदर नहीं करे है सांख्यादिमतमें तो ब्रह्माभी | जगतके कर्ता देव हैं विष्णुः रक्षणकरे है शिव संहार करे है इसलिये जो ईश्वर पार्वती की पूजाकरीजावे वह संतुष्ट मान होवे तव मनोवांछितसंसारिक सुखका लाभ होवे || ऐसा विचारके गणगौर वगैरहः मिथ्यात्वियोंके पत्र में आदर करनेवाली हुई बाद उसके मातापिताने बहुत मना किया है पुत्रि मिथ्यातियोंके पत्रका आराधन मतकर | चिंतामणिः रत्नकेसमान जैनधर्मको छोड़के काचखंड तुल्य और धर्म नहीं ग्रहणकरना अमृतका खाद छोड़के विपका खाद नहीं स्वीकारना विषपान करने से दुःखी होवेगी इत्यादि बहुत कहा परन्तु मिथ्यावियों के परिचय के कारण से | उसने कुछभी नहींमाना लौकिकपर्वका आराधन करने लगी जैसे जैसे लोग प्रशंसा करे वैसा वैसा खुशी होवे बाद | माता पिताने उस कन्याको वरप्रदान किया थोड़े कालसे मरके मनोरम सेठकी पुत्री भई कथाव्यास की पुत्री जिसके | साथ वाल्य अवस्था हीसे व्रत करती थी वह मरकर ढुंढा परिव्राजकनी भई और कथाव्यास मरके कामपाल कुमर भया। पूर्व भव के सम्बन्धसे ढूंढा परिब्राजकनीने कामपालका होलिका के साथ सम्बन्ध कराया इसप्रकार से वृथाही उत्पन्न For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy