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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir COCK लावण्यवाली उन स्त्रियोंके साथ भोगभोगवता दोगुन्दकदेवोंके जैसा सुखसे रहता भया ॥ तदनन्तर सेठ पुत्रको घर भोलाके दीक्षा लेके चारित्रपालके अंतमें अनशनकरके वर्गगया। वाद घरका खामी सुव्रतसेठने पूर्वभवमे एकादशीका आराधनकरनेसे इग्यारह करोड सोनइयोंका खामी दाता भोक्ता भया ॥राजाने सोनेका शिरपेच मस्तकपर बंधवाकर नगर सेठ किया ॥राजमान्य, सत्यवादी सर्वत्र प्रसिद्ध अतिप्रतापी, सजन; सर्व व्यापारियोंमें प्रधान, सर्वव्यापारियों में रत्नके जैसा काल गमावे॥ वाद कालान्तरमें इग्यारहस्त्रियोंके इग्यारह पुत्र हुए ॥ उन्होंका बहुत परिवार हुआ ॥ अन्यदिनमें उद्यानमें धर्मघोषआचार्य, परिवारसहित आए ॥राजा वगैरहः और सुव्रतसेठ बांदनेको गए ॥ आचार्यने धर्मदेशना प्रारंभकरी तपकामहिमा कहा ॥ 18| यद् दूरं यद् दुराराध्यं, यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत् सर्वं तपसा साध्यं, तपो हि दुरतिक्रमम् ॥१॥5 है अर्थः जो दूर होवे मुश्किलसे किया जावे जो दूररहाहुआ हो वह सर्व तपसेसाध्य है तप अत्यन्तशक्तिमान्है तप६ दुरतिक्रमहै ॥१॥ वहां पंचमीकातपकरनेसे पांच ज्ञानकीप्राप्तिहोवेहै ॥ अष्टमीका तपकरनेसे आठ कर्मका है क्षयहोवे है ॥ एकादशीका तपकरनेसे इग्यारहअंग सुखसे जानाजावेहै ॥ चतुर्दशीका तपकरनेसे चौदहपूर्वकाहै बोध होवे है ॥ पौर्णमासीका तपकरनेसे सम्पूर्णआगम जाना जावे है ॥ ऐसा सुनके सुव्रतसेठको मूर्छा प्राप्त हुई ॥ जातिःस्मरण ज्ञानसे पूर्वभवमें मौनएकादशीका तपकिया जानके चेतना पाई ॥ वाद गुरूके पासमें याव CALCARGADCASALAMA SACCAKACAKKAKACIRCRA पा. व्या. 11 For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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