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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie गयकन्नचञ्चलाए अपरिचत्ताए रायलच्छीए । जीवासकम्मकलिमल भरियभरातो पडन्ति अहे ॥१॥ अर्थः-हाथीके कान जैसी चंचल राज्यलक्ष्मीका नहीं त्याग करनेसे जीव कर्मरूपकादेके भारसे भारीहुआ नरकमेंजावेहै इत्यादि धर्मोपदेश सुनके संसारको असार जानके क्रोधको छोड़के ऐसा विचारताभया॥ अहो मेरे जीवतव्यको धिक्कार हों एकही मेरेभाई है उसके साथ मैंने युद्धः किया ॥ यह अनिष्ट किया थोड़े जीनेकेवास्ते वैर कियाजावेहै। राज्यके लोभसे अपने भाईयोंसे संग्रामकरें। यह सब अकार्य है । ऐसाविचारके द्राविड तापसाश्रमसे उठके अपने 1 भाईके पासगया ॥ वारिखिल्लभी बड़ेभाईको आताहुआ सुनके सामने जाके पगोंमें पड़ा । तब द्राविड़राजा अश्रुपूर्णनेत्रस्नेहसे आर्द्रहृदय ऐसा वारिखिल्लको उठाकरऐसे बोला हेभाई मेरा राज्य तैले मैं तापसीदीक्षा लूंगा ॥ तब वारिखिल्लबोला जब तुम दीक्षालेओं तो मेरेराज्यसे क्या प्रयोजनहै मैंभी दीक्षालेउंगा बाद अपने पुत्रकों राज्य देकर द्राविड़ वारिखिल्लने दशकरोड़ क्षत्रियोंके परिवारसे तपोवनमें जाके कुलपतिःके पास तापसीदीक्षा लिया॥ आतापना सूर्यके सामने करे ॥ कन्दमूलादिकका आहार करता भोजपत्रका वस्त्रपहरता तपकरनेसे दुर्बलशरीर हुआ ॥ ऐसे करते बहुतकाल गया उस अवसरमें कईकसाधुः तीर्थयात्राके लिये जातेहुए उस वनमें आये ॥ द्राविड वारिखिल्लने मुनियोंको देखके बहुत आदरसे नमस्कार किया ॥ साधुभी गमनागमन आलोयके भूमिप्रमार्जके वृक्षके नीचेबैठे ॥ द्राविड वारिखिल्ल वगैरहः तापस सामनेबैठे ॥ उतने एक हंस बीमार मूर्छितहोके पड़ा SAUSASSASSASSASSHOSES For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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