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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। सद्वैद्यसे ही रोग नहीं जा सकता । बहुधा रोगीके जिद्दी और क्रोधी. वगैरः होने तथा सेवा करनेवाले (तीमारदार) के अच्छा न होनेसे, आसानी से आराम हो जानेवाले रोग भी कष्ट-साध्य या असाध्य हो जाते हैं, अतः हम उन दोनोंके सम्बन्धमें यहाँ कुछ लिखते हैं, क्योंकि यक्ष्मा जैसे महा रोगमें इसकी बड़ी जरूरत है। __ रोगीको वैद्यपर पूर्ण श्रद्धा और भक्ति रखनी चाहिये । वैद्यकी आज्ञा ईश्वरकी आज्ञा समझनी चाहिये। दवा और पथ्यापथ्यके मामले में कभी जिद्द न करनी चाहिए। जैसा वैद्य कहे वैसा ही करना चाहिये। रोगी और रोगीके सेवकके कमरे साफ़ लिपे-पुते, हवादार और रोशनीवाले (Woll-ventilated ) होने चाहिएँ । रोगीके बिस्तर सदा साफ़-सफ़ेद रहने चाहिए । थूकने के लिये पीकदानी रक्खी रहनी चाहिये । उसमें राख रहनी चाहिये। अथवा चीनीके टीनपाटमें थोड़ा पानी डालकर, उसमें कुछ कारबोलिक ऐसिड या फिनाइल मिला देनी चाहिये । रोगीके पलँगकी चादर. उसके पहननेके कपड़े रोज़ बदल देने चाहिये। ___ सेवक या परिचारकको रोगीकी कड़वी बातों या गाली-गलौजसे चिढ़ना न चाहिए । बुद्धमान लोग रोगी, पागल और बालककी बातोंका बुरा नहीं मानते । मनमें समझना चाहिये कि, रोगने रोगीको चिड़चिड़ा या खराब कर दिया है। रोगीका इसमें जरा भी कुपूर नहीं। वह जो कुछ करता है, रोगके जोरसे करता है, अपनी इच्छा से नहीं। __ परिचारकको चाहिये, रोगीको सदा तसल्ली दे। वह बात न करना चाहे, तो उसे बात करनेको वृथा न सतावे। ऐसी बातें कहे कि जिनसे उसका दिल खुश हो । अगर रोगी चाहे तो अच्छे-अच्छे ७8 For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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