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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 000000 . . १०. 00000000000000000 MP°000000000000०°ati 30 . ००१ .over--ueue 900aaaa. . चिकित्सा-चन्द्रोदय । -- ------ यक्ष्मा-चिकित्सामें चिकित्सकके - याद रखने योग्य बातें । O ........ ...... (१) सभी तरहके यक्ष्मा त्रिदोषज होते हैं। यानी हर तरहके यमा वात, पित्त और कफ तीनों दोषोंके कोपसे होते हैं। यद्यपि यक्ष्मामें तीनों ही दोषोंका कोप होता है, पर तीनोंमेंसे किसी एक दोषकी उल्वणता या प्रधानता होती ही है । अतः दोषोंके बलाबलका विचार करके, शोषवालेकी चिकित्सा करनी चाहिये । "चरक"में लिखा है:- ... यद्यपि सभी यक्ष्मा त्रिदोषसे होते हैं, तथापि वातादि दोषोंके बलाबलका विचार करके यक्ष्माका इलाज करना चाहिये। जैसे कन्धे और पसलियोंमें दर्द, शूल और स्वर-भेद हो, तो वायुकी प्रधानता समझनी चाहिये। अगर ज्वर, दाह और अतिसार हों, एवं खूनकी क़य होती हों, तो पित्तकी प्रधानता समझनी चाहिये । अगर सिर भारी हो, अन्नपर अरुचि हो, खाँसी और कण्ठकी जकड़न हो, तो कफकी प्रधानता जाननी चाहिये । 'जिस तरह दोषोंके बलाबलका विचार करना आवश्यक है; उसी. तरह इस बातका भी विचार करना जरूरी है, कि रोगीके शरीरमें किस धातुकी कमी हो रही है, कौन-सी धातु क्षीण हो रही है। जैसे; रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र - इनमेंसे किस धातुकी क्षीणता है। अगर खून कम हो, तो खूनकी कमी पूरी करनी चाहिये। अगर रस-क्षयके लक्षण दीखें तो रस-क्षयकी चिकित्सा करनी चाहिये । अगर मांस-क्षयके चिह्न हों, तो उसका इलाज करना चाहिये । क्योंकि बिना धातुओंके क्षीण हुए यक्ष्मा-रोग असाध्य नहीं होता । For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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