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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. चिकित्सा-चन्द्रोदय । है । दर्वीकर सर्पका विष वातिक, मंडलीका पैत्तिक और राजिलका श्लेष्मिक होता है। इनके काटनेसे अलग-अलग दोष कुपित होते हैं और ऊपर लिखे अनुसार उनके अलग-अलग उपद्रव होते हैं । जैसे:.. दर्वीकर सर्पो का विष वातप्रधान होता है । उनके काटनेसे वैसे ही लक्षण होते हैं, जैसे ऊपर वातिक विषके लिखे हैं। दर्वीकरके काटनेकी जगह सूक्ष्म, काले रंगकी होती है, उसमेंसे खून नहीं निकलता । इसके सिवा वातव्याधिके उद्मवात, शिरायाम और अस्थिशूल आदि समस्त लक्षण होते हैं । ___मंडली सर्पका विष पित्तप्रधान होता है। उसके काटनेसे वही लक्षण होते हैं, जो ऊपर पैत्तिक विषके लिखे हैं । मंडली सर्पके काटने की जगह स्थूलमोटो होती है । उसपर सूजन होती है और उसका रङ्ग लाल-पीला होता है तथा रक्तपित्तके सारे लक्षण प्रकाशित होते हैं । इसलिए उसके काटनेकी जगहसे खून निकलता है। राजिल सर्पका विष कफप्रधान होता है। उसके काटनेसे वही लक्षण होते हैं, जो कि ऊपर श्लेष्मिक विषके लिखे हैं । राजिलकी काटी हुई जगह लिबलिबी या चिकनी-सी, स्थिर और सूजनदार होती है। उसका रङ्ग पाण्डु या सफ़द-सा होता है । काटे हुए स्थानका खून जम जाता है । इसके सिवा, कफके सब लक्षण अधिकतासे नज़र पाते हैं। बिच्छू और उञ्चिटिङ्गके विषके सिवा और सब तरहके विषोंमें चाहे वे किसी स्थानमें क्यों न हों, प्रायः शीतल चिकित्सा हितकारी है । चरक । सुश्रुतमें लिखा है, चूंकि विष अत्यन्त गरम और तीक्ष्ण होता है, इसलिये प्रायः सभी विषों में शीतल परिषेक करना या शीतल छिड़के देना हितकारी है। पर कीड़ोंका विष बहुत तेज़ नहीं होता, प्रायः मन्दा होता है और उसमें वायुकफके अंश अधिक होते हैं, इसलिये कीड़ोंके विषमें सेकने या पसीना निकालने की मनाही नहीं है । परन्तु ऐसे भी मौक होते हैं, जहाँ कीड़ोंके विषमें गरम सेक नहीं किया जाता। ___ चरक मुनि कहते हैं, बिच्छूके काटनेपर, घी और नमकसे स्वेदन करना और अभ्यङ्ग हितकारी हैं । इसमें गरम स्वेद, घीके साथ अन्न खाना और घी पीना भी हित है । घी पीनेसे मतलब यह है कि, घीकी मात्रा ज़ियादा हो।। सुश्रुतके कल्प-स्थानमें लिखा है, उग्र या तेज़ ज़हरवाले बिच्छुओंके काटेका इलाज साँपोंके इलाजकी तरह करो । मन्दे विषवाले बिच्छूके काटे स्थानपर चक्र तेल यानी कच्ची घानीके तेलका तरड़ा दो अथवा विदार्यादिसे पकाये For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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