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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-नष्टात्तव । ३६१ शयके अन्दर जाता है और वहाँ रजसे मिलकर गर्भका रूप धारण करता है । अगर सोलह दिनके बाद मैथुन किया जाता है, तो गर्भ नहीं रहता; क्योंकि उस समय गर्भाशयका मुँह बन्द हो जाता है। रजोधर्म होनेके १६ दिन बाद मैथुन करनेसे, पुरुषका वीर्य योनिके और हिस्सोंमें गर्भाशयसे बाहर--गिरता है । उस दशामें गर्भ रह नहीं सकता । "भावप्रकाश"में लिखा है: आर्तवस्रावदिवसातुः षोडशरात्रयः । गर्भग्रहणयोग्यस्तु स एव समयः स्मृतः ॥ आर्त्तव गिरने या रजःस्राव होनेके दिनसे सोलह रात तक स्त्री "ऋतुमती” रहती है । गर्भ ग्रहण करने योग्य यही समय है । __जो बात हमने ऊपर लिखी है,वही बात यह है । स्त्रीके गर्भाशयका मुँह रजोधर्म होनेके दिनसे सोलह रात तक खुला रहता है । इतने समयको “ऋतुकाल” और इतने समय तक यानी सोलह दिन तक स्त्रीको "ऋतुमती” कहते हैं । इसी समय वह पुरुषका संसर्ग होनेसे गर्भ धारण कर सकती है। फिर नहीं । बादके चौदह दिनोंमें गर्भ नहीं रहता; इसीसे बहुत-सी चतुरा वेश्या अथवा विधवा स्त्रियाँ इन्हीं चौदह दिनोंमें पुरुष-संग करती हैं। __पिताका वीर्य और स्त्रीका आर्तव गर्भके बीज हैं। बिना दोनोंके मिले गर्भ नहीं रहता । अनजान लोग समझते हैं, कि केवल पुरुषके वीर्यसे गर्भ रहता है, यह उनकी ग़लती है। बिना दो चीजोंके मिले तीसरी चीज़ पैदा नहीं होती, यह संसारका नियम है । जब वीर्य और रज मिलते हैं, तभी गर्भोत्पत्ति होती है । वाग्भट्टजी कहते हैं: शुद्ध शुक्रात सत्त्वः स्वकर्मक्लेशचोदितः। .. गर्भः सम्पद्यते युक्तिवशादग्निरिवारणौ ॥ जिस तरह अरणीको मथनेसे आग निकलती है, उसी तरह स्त्री-पुरुषकी योनि और लिंगकी रगड़से-वीर्य और आवक For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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