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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-वर्णन । (६) विष लघु होता है, इसलिये इसकी चिकित्सामें कठिनाई होती है । यह शीघ्र ही असाध्य हो जाता है। (१०) विष अपाकी होता है, इसलिये बड़ी कठिनतासे पचता या नहीं पचता है; अतः बहुत समय तक दुःख देता है। ___ नोट-चरकमें लिखा है, त्रिदोषमें जिस दोषकी अधिकता होती है, विष उसी दोषके स्थान और प्रकृतिको प्राप्त होकर, उसी दोषको उदीरण करता है; यानी वातिक व्यक्तिके वात-स्थानमें जाकर बादीकी प्यास, बेहोशी, अरुचि, मोह, गलग्रह, वमि और झाग वारः उत्पन्न करता है। उस समय कफ-पित्तके लक्षण बहुत ही थोड़े दीखते हैं। इसी तरह विष पित्त-स्थानमें जाकर प्यास, खाँसी, ज्वर, वमन, क्लम, तम, दाह और अतिसार आदि पैदा करता है । उस समय कफवातके लक्षण कम होते हैं । इसी तरह विष जब कफ-स्थलमें जाता है, तब श्वास, गलग्रह, खुजली, लार और वमन आदि करता है । उस समय पित्त-वातके लक्षण कम होते हैं । दूषी विष खूनको बिगाड़कर, कोढ़ प्रभृति खूनके रोग करता है। इस प्रकार विष एक-एक दोषको दूषित करके जीवन नाश करता है। विषके तेज़से खून गिरता है । सब छेदोंको रोककर, विष प्राणियोंको मार डालता है। पिया हुआ विष मरनेवालेके हृदयमें जम जाता है । साँप, बिच्छू आदिका और ज़हरके बुझे हुए तीर आदिका विष डसे हुए या लगे हुए स्थानमें रहता है। दूषी विषके लक्षण । जो विष अत्यन्त पुराना हो गया हो, विष-नाशक दवाओंसे हीनवीर्य या कमजोर हो गया हो अथवा दावाग्नि, वायु या धूपसे सूख गया हो, अथवा स्वाभाविक दश गुणोंमेंसे एक, दो, तीन या चार गुणोंसे रहित हो गया हो, उसको “दूषी विष" कहते हैं। __खुलासा यह है, कि चाहे स्थावर विष हो, चाहे जंगम और चाहे कृत्रिम-जो किसी तरह कमजोर हो जाता है, उसे “दूषी विष" कहते हैं। मान लो, किसीने विष खाया, वैद्यकी चिकित्सासे वह विष निकल गया, पर कुछ रह गया, पुराना पड़ गया या पच गया.- वह विष “दूषी विष" कहलावेगा; क्योंकि उसमें अब उतना बलवीर्य नहींपहलेसे यह हीनवीर्य या कमजोर है। इसी तरह जो विष धूप, आग For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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