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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग। ३३७ विषका योग होने और दिनमें बहुत सोने वगैरः कारणोंसे स्त्रियोंको "अमृग्दर” या “प्रदर" रोग पैदा होता है। इस प्रदर-रोगके अत्यन्त बढ़नेपर भ्रम, व्यथा, दाह-जलन, सन्ताप, बकवाद, कमजोरी, मोह, मद, पाण्डुरोग, तन्द्रा, तृष्णा और बहुतसे 'वात-रोग” हो जाते हैं । यह प्रदर-रोग वात, पित्त, कफ और सन्निपात-इन भेदोंसे चार तरहका होता है। "भावप्रकाश" में प्रदर-रोग होनेके नीचे लिखे कारण लिखे हैं:(१) विरुद्ध भोजन करना। (२) मद्य पीना। (३) भोजन-पर-भोजन करना । (४) अजीर्ण होना । (५) गर्भ गिरना। (६) अति मैथुन करना। (७) अधिक राह चलना । (८) बहुत शोक करना । (६) अत्यन्त कर्षण करना। (१०) बहुत बोझ उठाना । (११) चोट लगना। (१२) दिनमें सोना । (१३) हाथी या घोड़ेपर चढ़कर उन्हें खूब भगाना । प्रदर-रोगकी किस्में । प्रदर-रोग चार तरहका होता है:(१) वातज-प्रदर। (२) पित्तज-प्रदर । (२) काज-प्रदर (४) सन्निपातज-प्रदर । वातज-प्रदके लक्षण । अगर वातज प्रदर-रोग होता है, तो रूखा, लाल, झागदार, व्यथासहित, मांसके धोवन-जैसा और थोड़ा-थोड़ा खून बहा करता है। ___ नोट-"चरक में लिखा है---वातज प्रदरका खून झागदार, रूखा, साँवला अथवा अकेले लाल रंगका होता है । वह देखने में ढाकके काढ़ेके-से रङ्गका होता है। उसके साथ शूल होता है और नहीं भी होता । लेकिन वायु-कमर, वंक्षण, For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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