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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । उसकी ऊपरी हालत बेहोशी अादि देखकर लोग उसे मुर्दा समझ लेते हैं और अनेक ना-समझ उसे शीघ्र ही मरघट या श्मशानपर ले जाकर जला देते या कबमें दफना देते हैं। इस तरह, अज्ञानतासे, अनेक बार, बच सकनेवाले आदमी भी, बिना मौत मरते हैं । चतुर श्रादमी ऐसे मौकोंपर काकपद करके या उसकी आँखकी पुतलियों में अपनी या दीपककी लौकी परछाँही आदि देखकर, उसके मरने या जिन्दा होनेका फैसला करते हैं। मूर्छा रोग, मृगी रोग और विषकी दशामें अक्सर ऐसा धोखा होता है। हमने ऐसे अवसरकी परीक्षा-विधि इसी भागमें आगे लिखी है । पाठक उससे अवश्य काम लें; क्योंकि मनुष्य-देह बड़ी दुर्लभ है। विषके मुख्य दो भेद । सुश्रुतमें लिखा है:-- स्थावरं जंगमं चैव द्विविधं विषमुच्यते । दशाधिष्ठानं आद्यं तु द्वितीय षोडशाश्रयम् ।। विष दो तरहके होते हैं:-(१) स्थावर, और (२) जंगम । स्थावर विषके रहनेके दश स्थान हैं और जंगमके सोलह । अथवा यों समझिये कि स्थान-भेदसे, स्थावर विष दश तरहका होता है और जंगम सोलह तरहका। ___ नोट--स्थिरतासे एक ही जगह रहनेवाले--फिरने, डोलने या चलनेकी शक्कि न रखनेवाले--वृक्ष, लता-पता और पत्थर आदि जड़ पदार्थों में रहनेवाले विषको "स्थावर" विष कहते हैं। चलने-फिरनेवाले--चैतन्य जीवोंसाँप, बिच्छू, चूहा, मकड़ी आदिमें रहनेवाले विषको "जंगम' विष कहते हैं। ईश्वरकी सृष्टि भी दो तरहकी है:--(१) स्थावर, और (२) जंगम । उसी तरह विष भी दो तरहके होते हैं-(१) स्थावर, और (२) जंगम । मतलब यह कि, जगदीशने दो तरहकी सृष्टि-रचना की और अपनी दोनों तरहकी सृष्टिमें ही विषकी स्थापना भी की। जंगम विषके रहनेके स्थान । जंगम विषके सोलह अधिष्ठान या रहनेके स्थान ये हैं:..(१) दृष्टि, (२) श्वास, (३) दाढ़, (४) नख, (५) मूत्र, For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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