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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा । १५५ है। हजारों वर्षको उम्र हो जाती है । अष्ट सिद्धि और नव निद्धि इसके सेवन करनेवाले के सामने हाथ बाँधे खड़ी रहती हैं। पर खेद है कि यह आजकल दुष्प्राप्य है। सूचना--अगर उबटन, छिड़कने के पदार्थ, काढ़े, लेप, बिछौने, पलँग, कपड़े और ज़िरह-बख्तर या कवचमें विष हो, तो ऊपर लिखे विष-मिले मालिशके तेलके जैसे लक्षण होंगे और चिकित्सा भी उसी तरह की जायगी । * अनुलेपनमें विष के लक्षण । केशर, चन्दन, कपूर और कस्तूरी आदि पदार्थों को पीसकर, अमीर लोग बदन में लगवाया करते हैं; इसीको अनुलेप कहते हैं। अगर विष-मिला अनुलेप शरीरमें लगाया जाता है, तो लगायी हुई जगहके बाल या रोएँ गिर जाते हैं, सिरमें दर्द होता है, रोमोंके छेदोंसे खून निकलने लगता है और चेहरेपर गाँठे हो जाती हैं। चिकित्सा। (१) काली मिट्टीको--नीलगाय या रोझके पित्ते, घी, प्रियंगू, श्यामा निशोथ और चौलाईमें कई बार भावना देकर पीसो और लेप करो । अथवा (२) गोबरके रसका लेप करो। अथवा मालतीके रसका लेप करो। अथवा मूषिकपणी या मूसाकानीके रसका लेप करो अथवा घरके धूएँ का लेप करो। नोट-मूषकपर्णीको मूसाकानी भी कहते हैं । इसके चुप ज़मीनपर फैले रहते हैं। दवाके काम में इसका सर्वाङ्ग लेते हैं । इससे विषैले-चूहेका विष नष्ट होता है। मात्रा १ मारोकी है । रसोईके स्थानों में जो धूसाँ-सा जम जाता है, उसे ही घरका धूआँसा कहते हैं। विष-चिकित्सामें यह बहुत काम आता है। सूचना--अगर सिरमें लगानेके तेल, इत्र, फुलेल, टोपी, पगड़ी, स्नानके जल और मालामें विष होता है, तो अनुलेपन विषकेसे लक्षण होते हैं और इसी ऊपर लिखी चिकित्सासे लाभ होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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