SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मान्य करो और जब पांच महीनोका वर्षाकाल मान्य हुआ तो फिर अधिकमहीना निषेध करनेकी व पर्युषणाके पीछे ७० दिन हमेश रखने वगैरहकी सर्व बाते आपही आप निष्फल हो जाती हैं इसतरहसे अधिकमहीनेकेनिषेधसंबंधी धर्मसागरजीने 'कल्प किरणावली' में, जयविजयजीने 'कल्प दीपिका में, विनयविजयजीने 'सु. बोधिका मे,कांतिविजयजी-अमरविजयजीने जैन सिद्धांत समाचारी' में,शांतिविजयजीने मानवधर्मसंहिता में,वल्लभविजयजीने जैनपत्रमें, विद्याविजयजीने 'पर्युषणाविचार में कुलमंडनसूरिजीने 'विचारामृत संग्रह में, हर्षभूषणजीने 'पर्युषणास्थिति में, और वर्तमानिक चर्चाके हेडबिले,किताचे वगैरहमें जो जो शंकायें की हैं, उन सर्व शंकाओंका खुलासा पूर्वक समाधान इस ग्रंथकी भूमिकामे व पीठिका और इस ग्रंथ अच्छी तरहसे लिखनेमें आयाहै, इसलिये जिनाशानुसार धर्मकार्य करने की इच्छावाले,सत्यतत्त्वाभिलाषी,आत्माहितैषी पाठक गण इसग्रंथको पूर्णतया वांचकर सत्यसार ग्रहण करें। ९-तीर्थकर भगवान्के व्यबन-जन्म-दीक्षादिकोको कल्याणक मा ननेका आगमानुसार अनादि सिद्ध है,इसलिये श्री महावीरस्वामि. भी देवलोकसे देवानंदामाताके गर्भमे आषाढ शुदी ६ को आये उनको प्रथम च्यवन कल्याणक, और आसोजवदी १३ को देवानंदामा. ताकेगर्भसे त्रिशलामाताके गर्भ में आयेः सो गर्भापहाररूप (गर्भसंक्रमणरूप)दूसराच्यवन कल्याणक माननेका स्थानांग-आचारांग-दशाश्रुतस्कंधादिक आगम पंचांगी प्रकरण चरित्रादि अनेक शास्त्रानुसा. र और वङगच्छ, चंद्रगच्छ, उपकेशगच्छ (कमलागच्छ ) खरतर. गच्छ,तपगच्छ, अंचलगच्छ, पायचंदगच्छादि अनेक गोके पूर्वा. चार्योंके ग्रंथानुसार अच्छी तरहसे सिद्ध करके पतलायाहै. च्यवनजन्म-दीक्षादिकोंको चाहे वस्तु कहो, चाहे स्थानकहो, चाहे कल्याणक कहो. इन तीनोबातों में प्रसंगोपात संबंधानुसार पर्याय वाचक एकार्थवाले शब्द अलग २ हैं, मगर सबका भावार्थ एकही है, उसबातकामेद समझे बिनाही च्यवन-जन्म-दीक्षादिकाको वस्तु-स्थान कहकर कल्याणक पनेका निषेध करके आगमार्थरूप पंचांगीको उ. स्थापनकरनेके दोषी बनना किसीकोभी योग्य नहीं है। १०- श्रीवीरप्रभुके आषाढ शुदी ६ को प्रथम च्यवनकल्याणक मान्यकरके आसोजवदी १३ को दूसरेच्यवनको कल्याणकपनेका नि. वेध करनेवालोंको न्यायबुद्धिसे विचार करना चाहिये, कि-तीर्थकर For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy