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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२३ ] बढ़ाने के लिये शास्त्रों के आगे पीछेके सब पाठोंको छोड़ करके उमी के बीच में से बिना सम्बन्धके अधूरे पाठके फिर उलट अर्थ करके उत्सूत्र भाषणोंसे तथा कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंकी मत्य बातों परसे श्रद्धा भ्रष्ट करके अपने मिथ्यात्वके पाखण्डमें गेरके संसार वृद्धिका कारण करते हैं तो भी हितोपदेशसे अच्छा किया ऐसाअज्ञताके कारणसे वृषा पुकार करते हैं। तैसे ही पर्युषणा विचारके लेखकने भी किया, अर्थात्अपने कदाग्रहमें मुग्ध जीवोंको फंसाने के लिये श्रीनिशीष चूर्णि वगैरह शास्त्रों के आगे पीछेके सब पाठोंको छोड़ करके उसीके बीच मेंसे शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थ में बिना मम्बन्धके अधूरे पाठ लिख के उलटे अर्थ करके उत्सूत्र भाष. णोंकी तथा कुयुक्तियोंकी कल्पनायोका पर्यषणा विचारके लेख में संग्रह करके भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे हित बडिसे विषय लिखनेका ठहराते हैं सो कदापि नहीं ठहर सकता क्योंकि हितबद्धिके बहानेमिथ्यात्वकेपाखण्डकी वृद्धिका कारण किया है इसलिये भव्यजीवोंके उपकारके लिये पर्युषणा विचारके लेख कीशास्त्रानुमार युक्तिपूर्वक समालोचना करनी मेरेको उचित थी सो करी है जिस पर भी शास्त्रमार्गसे विपरीत न चलने के लिये सावधानी रखनेका सातवें महा. शयजी लिखते हैं इसपर भी मेरेको इतनाही कहना है किखाम आपही अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से (शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक अधिक मासकी गिनती प्रमाण तथा श्रावण वृद्धिसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा और मासवृद्धिसे १३ मासके क्षामणे वगैरह) सत्य बातोंको ग्रहण नहीं करते हुए अपने For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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