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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१२] जब मास,पक्ष,तिथि,वार,नक्षत्रादिक मानतेहैं.मगर जैनशास्त्रतो मौजूदही हैं. इसलिये पर्युषणादि धार्मिक कार्य जैनसिद्धांतोंके मुजबही करनेमें आते हैं। और जैनशास्त्र मुजबही अभी सर्व गच्छवाले अ. धिक महीनेको कालचूला कहते हैं । किंतु कितनेक प्रथम महीनेको कालचूला कहतेहैं, मगर प्रवचनसारोद्धारमूत्रवृत्ति, सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति,चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति,लोकप्रकाश, ज्योतिषकरंडपयन्नवृत्ति वगैरह शास्त्रप्रमाणोंसे दूसरा अधिकमहीना कालचूलारूप ठहरताहै.दे. खिये-“सठ्ठीए अईयाए, हवई हु अहिमासो जुगलुमि । बावीसे प. व्वसए, हवा हु बीओ जुगंतमि ॥१॥ इत्यादि सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिके अ. नुसार ६०पर्व (पक्ष)के३०महीने व्यतीत होनेपर३१वा महीना दूसरा पौष अधिक होताहै,और १२२ पक्षके ६१ महीने जानेपर कालचूला रूप दूसरा आषाढअधिक होताहै.उसी कालचूलारूप दसरे अधिक आषाढ महीनेमें ही चौमासीप्रतिक्रमणादि धार्मिककार्य सर्वगच्छवालोके करनेमें आते हैं। और अधिक पौष महीने व अधिक आषाढ महीनेके दिनोंकी गिनतीसहितही ६२ महीने, १२४ पक्ष, १८३० दिन और ५४९०० मुहूतौके पांच वर्षोंका एक युग शास्त्रोंमें कहा है । इस लिये कालचलारूप अधिक महीनेके ३० दिन गिनतीमें नहीं आते १. तथा कालचूलारूप अधिक महीनेमें चौमासी प्रतिक्रमणादि धार्मिक कार्यनहीं हो सकते २, और मासवृद्धि दो महीने होनेसे प्रथम महीनेको कालचूलाकहना ३, यह सर्व बातें सर्वथा शास्त्रविरुद्धहैं । ५- पूर्वापर विसंवादी (विरोधी) कथन ॥ जालोग जिसअधिकमहीनेको कालचूलाकहकर गिनतीमेलेनेका वपर्युषणपर्वादि धर्मकार्यकरनेकानिषेधकरतेहैं,वोहीलोग उसीकाल. चूलारूप दूसरे अधिकआषाढको गिनतीमेलेकर चौमासीप्रतिक्रमणा दिसर्वकार्य आप करते हैं. जिसपरभी मुंहसे कालचूलारूप अधिकमहीनेको गिनतीमें नहीं लेना तथा उसमें पर्युषणा व चौमासी आदि धर्मकार्य नहींकरनेका कहतेहैं. और कालचूलारूप अधिक महीनेको गिनतीमें लेकर धर्मकार्यकरनेवालोंको दोषबतलातेहैं. सो देखो-एक जगह कालचूलारूप अधिकमहीना गिनती छोडतेहैं. दूसरी जगह उसीकोही खास आप गिनतीमें लेकर चौमासीआदिधर्म कार्य करते हुए अंगीकारकरतेहैं. और फिर दूसरे गिनतीमैलेने वालोंको दोषभी बतलातेहैं.यह तो "मम वदनजिव्हा नास्ति' की तरह कैसा पूर्वापर सर्वथा असंगतरूप विसंवादी कथन है. सो भी विचारने योग्य है। For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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