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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [११] ३-कहतेहैं मगर करते नहीं, यहभी देखिये-आग्रह ? __ अधिकमहीनेके ३० दिनोंको गिनती से छोडदेनेका आग्रहक रनेवाले; जब दो श्रावण होवे तबभी भाद्रपद तक ५० दिन हुए ऐसा कहते हैं, मगर प्रत्यक्ष प्रमाण व न्यायकी युक्तिसे विचारकर देखा जावे तो यहकहना प्रत्यक्ष प्रमाणसेभी सर्वथा अनुचितही मालूम हो. ता है। देखिये- किसी श्रावक या श्राविकाने आषाढचौमासीसे उप वास करने शुरू किये होवे, उनको बतलाईये दो श्रावण होनेपर ५०उपवास कबतक पूरेहोवेगे.और८०उपवास कबतक पूरे होवेंगे?इ. सके जवाबमें छोटासा बालक होगा वहभी यही कहेगा, कि-५० दि. नोके ५० उपवास दूसरे श्रावणमे और ८० दिनोंके ८० उपवास दोश्रावणहोनेसे भाद्रपदमें पूरे होवेगे । इसीतरह साधुसाध्वीयोंके सं. यमपालने तथा सर्व संसारी जीवोंके प्रत्येक समयके हिसाबले ७८ कमौके शुभाशुभ बंधन होनेमें और धार्मिक पुरुषोंके धर्मकार्योंसे कर्मोंकी निर्जरा होने में व सूर्यके उदय अस्तके परिवर्तन मुजब दि. वसोंके व्यतीत होनेके हिसाबमें, इत्यादि सर्व कार्यों में दो श्रावण होनेसे भाद्रपद तक ८० दिन कहते हैं । ५० उपवास दूसरे श्रावणमें, व ८० उपवास भाद्रपदमें पूरे होनेकाभी कहते हैं. और उपवासादिक उपरके तमाम कार्यों में अधिक महीनेके ३० दिनोंको बीचमें सामील गिनकर ८० दिन कहते हैं, ८० दिनोंके लाभालाभ-पुण्यपापके कार्यभी प्रत्यक्षमें मंजूरकरतेहैं.ऐसेही दो आश्विनमहीने होनेसे पर्युषणाके पिछाडी कार्तिक तक१०० दिन होते हैं, उसकेभी१०० उपवास, व १०० दिनोंके कर्मबंधन तथा धर्मकार्य वगैरह सर्व कार्यों में १००दिन कहते हैं और१००दिनोंको आपभी अपने व्यवहारमेंभी मंजूर करते हैं। उसमें अधिक श्रावणके ३०दिनोंको गिनतीम लेनेकी तरह अधिक आसोजकेभी ३० दिनोंको गिनतीमें मान्य करना कहते हैं. मगर जब दो श्रावण होवे तब भाद्रपद तक ८० दिन होते हैं, व जब दो आश्विन होवे तबभी पर्युषणाकेबाद कार्तिक तक १०० दिन होते हैं, उनको अंगीकार करते नहीं. और ८० दिनके ५० दिन, व १०० दिनके ७० दिन कहते हैं. यह जगत विरुद्ध कैसा जबरदस्त आग्रह कहा जावे, इसको विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं। ४-कालचूलारूप अधिकमहीना पहिला या दूसरा ? यद्यपि जैनटिप्पणा विच्छेद है, इसलिये लौकिक टिप्पणा मु For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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