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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ९ ] १२- श्री आदीश्वरभगवान् १०८ मुनियों के साथ 'अष्टापद'पर मोक्ष पधारे सो अच्छेरा कहते हैं, तोभी उनको मोक्ष कल्याणक मा. नने में कोई भी बाधा नहीं आसकती. तैसेही-श्रीवीरप्रभुकेभी देवानंदा माताके गर्भ में आनेसे विशलामाताके गर्भ में जाना पड़ा. सो अच्छेरारूप कहते हैं, तोभी उनको च्यवनकल्याणक मानने में कोई भी बाधा नहीं आसकती. इसलिये अच्छेरा कहकर कल्याणकपनेका निषेध करना यहभी घे समझही है. १३- और श्री मल्लिनाथस्वामि स्त्रीपनेमें तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं, तोभी चौवीश तीर्थकर महाराजॉकी अपेक्षासे सामान्यतासे पुरुषपनेमें कहनेमेतेहै. तैसेही श्रीवीरप्रभुकेभी छ कल्याणक आचारांग. स्थानांगादि आगामे विशेपतासे खुलासापूर्वक कहे हैं, तोभी 'पंचाशक' में सर्व तीर्थकर महाराजोंकी अपेक्षासे सामान्यतासे पांच क. ल्याणक कहेहै, उसकाभावार्थ समझे बिनाही सर्वजिनसंबंधी पांच. कल्याणकोका सामान्य पाठको आगे करके आचारांग-स्थानांगादि आगामें कहे हुए विशेषतावाले छ कल्याणकोका निषेधकरना यह भी बे समझका व्यर्थही आग्रह है। १४-इसतरहसे आगमपंचांगीके अनेक शास्त्रानुसार तीर्थकर, ग. णधर,पूर्वधरादि प्राचीन पूर्वाचार्योंके कथनमुजब गर्भापहारको दूस रा च्यवनरूप कल्याणकपनाप्रत्यक्षसिद्ध होनेसे.श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने चितोडमें छठे कल्याणककी नवीनप्ररूपणाकी, पहिले नही थी, ऐसा कहेनाभी वे समझसे व्यर्थही है। १५-और गर्भापहाररूप दूसरे च्यवनकल्याणकके अतीव उत्तम कार्यको 'सुबोधिका 'टीकामें अतीव निंदनीक कहकरके निंदाकीहै, सोभी भगवान्की आशातनाकारक होनेसे सम्यक्त्वको व संयमको हानीपहुंचानेवालीहै, उसका तत्वदृष्टिसे विचारकिये बिनाही विद्वान् कहलानेवाले सर्व मुनिमहाराज वर्षों वर्ष पर्यषणापर्वके मांगलिक रूप व्याख्यान समय ऐसी अनुचित बातको वांचते हैं, यह बड़ीही शर्म की बात है, भवभीरू आत्मार्थियोंको ऐसा करना कदापि योग्य नहीं हैं । इन सर्व बातोंका विशेष निर्णय प्रथम भागी भूमिका और इस ग्रंथके उत्तरार्द्ध में अच्छी तरहसे लिखने में आयाहै, उनके वांचनेसे सर्व बातोंका निर्णय हो जावेगा. १६- सामायिकमें प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पी. छेसे इरियावही करनेसंबंधीभी आवश्यकचूर्णि-वृहद्वात्त-लधुवृत्तिनवपदप्रकरण विवरणरूपवृत्ति-दूसरीवृत्ति श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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