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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारिभाषिक शब्द १२५३ बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश काल-वर्तना लक्षण से युक्त एक द्रव्य। एक प्रदेशी। घड़ी, घोष-जहां अहोर रहते हैं। घण्टा, दिन, सप्ताह आदि। किल्विषिक-देवों का एक भेद। चक्रवर्ती-चक्ररत्नका स्वामी, राजाधिराज। ये १२ होते हैं तथा कुमुद-संख्या का एक भेद। भरत ऐरावत और विदेह क्षेत्र के छह खण्डों के केवली-ज्ञानावरण कर्म के क्षय से प्रकट होने वाला पूर्णज्ञान स्वामी होते हैं। जिन्हें प्राप्त हो चुका है। उन्हें अहरन्तसर्वज्ञ अथवा चतुर्थव्रतभावना-१. स्त्री कथा-त्याग, २. स्त्र्यालोक त्याग, ३. जिनेन्द्र भी कहते हैं। स्त्रीसंसर्ग त्याग, ४. प्रागतस्मरण त्याग, ५. केशव-नारायण, ये नौ होते हैं। वृष्येष्टरस-गरिष्ठ-उत्तेजक आहार का त्याग। कैवल्य-केवलज्ञान, संसार के समस्त पदार्थों को एक साथ चतर्दश महाविद्या-उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्व। जानने वाला ज्ञान। कोष्ठबुद्धि-कोष्ठबुद्धि ऋद्धि के धारक। चरणानुयोग-शास्त्रों का एक भेद, जिसमें गृहस्थ मुनियों के चारित्र का वर्णन रहता है। क्ष चारण-आकाश में चलने वाले ऋद्धिधारी मनि। क्षीरस्राविन्-क्षीरस्राविणी ऋद्धि के धारक। चारित्र के पांच भेद- १. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, ३. क्षेत्र-लोक। चारित्राचार, ४. तप आचार, ५. वीर्यावार। यह पांच क्ष्वेल-एक ऋद्धि। प्रकार का आचार भी कहलाता है। चारित्र के पांच भेद इस प्रकार भी हैं १. सामायिक, २. छेदोपस्थापना, खर्वट-जो सिर्फ पर्वत से घिरा हो ऐसा ग्राम। ३. परिहारविशुद्धि, ४. सूक्ष्म साम्पराय, ५. यथाख्यात खेट-जो नदी और पर्वत से घिरा हो ऐसा ग्राम। चारित्र भावना-ईर्यादि समितियों में यत्न करना, मनोगुप्ति आदि गुप्तियों का पालन और परिषह गणधर-तीर्थकरों के समवसरण में रहने वाले विशिष्ट मुनि। सहन करना ये चारित्र भावनाएं हैं। ये चार ज्ञान के धारक होते हैं। गुणवत-जो अणुव्रतों का उपकार करें। ये तीन हैं-दिग्व्रत, छ बाह्यतप-१. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्तिपरिसंख्यान, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत, कोई-कोई आचार्य ४. रस परित्याग, ५. विविक्त शय्यासन, ६. काय भोगोपभोग। परिमाण को गुणव्रत और देशव्रत को क्लेश। शिक्षा व्रत में शामिल करते हैं। छेदोपस्थापना-चारित्र का एक भेद। गुणस्थान-मोह और योग के निमित्त से उत्पन्न आत्मा के छह प्रकार का अन्तरंग नय-१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. भावों को गुणस्थान कहते हैं, वे १४ हैं-१. मिथ्यादृष्टि, वैय्यावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्यत्सर्ग, ६.ध्यान। २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसाम्पराय, जङ्घाचारण-चारण ऋद्धि का एक भेद। ११. उपशान्त मोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोग जलचारण-चारण ऋद्धि का एक भेद। केवली, १४. अयोगकेवली। जल्ल-एक ऋद्धि। गृहांग-वह बस्ती जो बाड़ से घिरी हुई हो और जिसमें अधि जिनकल्प-मुनि का एकाकी विहार करना। क तर शूद्र और किसान लोग रहते हों। बगीचा तथा जिनगुणर्द्धि-एक नया तालाब हो। जिनेद्रगणसंपत्ति-एक वा का नाम विधि छठेपर्व के १४३-१४४ श्लेक मेंहै। घ जीव-चेतना लक्षण से युक्त। ०ज्ञान-दर्शन उपयोग युक्त। घातिकर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय ये चार | जीव के नामान्तर-जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान् कर्म घातिया कहलाते हैं। अन्तरात्मा, ज्ञानी, यज्ञ, सत्त्व, प्रज्ञ। ०आत्मा, ज्ञ। For Private and Personal Use Only
SR No.020131
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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