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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश १२५२ पारिभाषिक शब्द आ आकर-जहां सोने-चांदी की खानें होती हैं। आकार-तद्-तद् पदार्थ के भेद से पदार्थ को ग्रहण करना। रूप प्राप्त करना। आकाश-जो स्वमत का निरूपण करने वाली कथा, स्वपक्ष की कथा। आगम-वीतराग सर्वज्ञदेव की वाणी, सच्चा शास्त्र। आचाम्लवर्धन-एक तप। आत्मरक्ष-इन्द्र के अंगरक्षक के समान देव। आत्मवाद-आत्मचिन्तन का कथन। आत्मा-ज्ञान-दर्शन स्वरूप जीव। आध्यात्मिक चेतना-आत्मा और ज्ञान का तादात्म्पभाव। आभियोगिक-पराधीनता। आभिनिवोधिक-अभिमुख और नियत पदार्थ को इन्द्रिया और मन से जानना। आद्यशुक्लध्यान-पृथक्त्ववितर्क वीचार शुक्ल ध्यान। आनुपूर्वो-वर्णनीय विषय का क्रम, इसके ३ भेद हैं-पूर्वानुपूर्वी, ____ अन्तानुपूर्वी, यत्रतत्रानुपूर्वी। आभियोग्य-देवों का एक भेद। आमर्ष-एक ऋद्धि। आरम्भ परिच्युति-आरम्भ त्याग नामक आठवीं प्रतिमा, इसमें व्यापार मात्र का त्याग हो जाता है। आराधना-समाधि, अर्चना, पूजा, भक्ति। आर्त्त-ध्यान का एक भेद। इसके चार भेद हैं-१. इष्ट वियोगज, २. अनिष्टसंयोगज, ३. वेदनाजन्य और ४ निदान। ०पीड़ा, कष्ट। आस्तिक्य-सम्यग् दर्शन का एक गुण, आत्मा तथा परलोक आदि का श्रद्धान होना। आहार-शरीर और पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना। होती है, यह १० कोड़ा-कोड़ा सागर का होता है इसके दुःषमा-दुःषमा आदि छह भेद हैं। उत्कर्षण-कर्म प्रकृति की स्थिति और अनुराग मे वृद्धि। उपक्रम-शास्त्र के नाम आदि का वर्णन, उपोद्घात-प्रस्तावना; इसके पांच भेद हैं-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण. अभिध ये, अर्थाधिकार उपपादशय्या-देवों के जन्म लेने का स्थान। उपयोग-१. ज्ञानोपयोग, २. दर्शनोपयोग। ०योग या अस्तित्व। उपशम श्रेणी-चारित्र मोहनीय। कर्म का उपशम करने वाले आठवें से लेकर ११वें गण स्थानवी जीवों के परिणाम। उपशान्त कषायता-ग्यारहवां गुणस्थान। उदय-कर्म-विपाक का प्रकट होना। उदीरणा-स्थिति और अनुभाग को न्यून करके फल देने के लिए उन्मुख करना। ऋ ऋजुमति-ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान नामक ऋद्धि के धारक इस ऋद्धि का धारक सरल मन वचन काय से चिन्तित दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थों को जानता है। ऋजुसूत्र-वर्तमान समय मात्र को विषय करना। क कथा-कथन-सत्कथा, धर्मकथा और विकथा। कनकावली-एक व्रत का नाम। कमल-संख्या का एक प्रमाण। करण-सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने वाले भाव। इसके ३ भेद हैं-१ अध:करण, २. अपूर्व करण, ३. अनिवृत्तिकरण। आत्मा का विशुद्ध परिणाम। करणानुयोग-शास्त्रों का एक भेद जिसमें तीन लोक का वर्णन होता है। कल्प-उत्सर्पिणी और अत्रसर्पिणी को मिलाकर बीस कोड़ा-कोड़ी सागर का एक कल्प काल होता है। कल्पपादप-कल्पवृक्ष, जिससे मनचाही वस्तुएं मिलती हैं। कामदेव-कामदेव पद का धारक (कुल २४ कामदेव होते हैं) कायगुप्ति-काय शरीर को वश में करना। कायबलिन्-कायबल ऋद्धि के धारक। इन्द्र-देवों का स्वामी। ०इन्द्रिय विशेष। इन्द्रक-श्रेणीबद्ध विमानों के बीच का विमान। इन्द्रप्रस्थ-प्राचीन नगर जो दिल्ली नाम को प्राप्त है। इन्द्रिय-आत्मा की पहचान। उत्कृष्टोपारुक स्थान-ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक क्षुल्लक उत्सर्पिणी-जिसमें लोगों के बल विद्या, बुद्धि आदि की वृद्धि For Private and Personal Use Only
SR No.020131
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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