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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षकार: ११०५ षण्ड: षकारः (पुं०) श्रेष्ठ, उत्तम, षकाररस्तु मतः श्रेष्ठो सकारो | षट्चरणस्थितिः (स्त्री०) छ: कर्मोके परिपालन की स्थिति। ज्ञाननिर्णये इतिकोष (जयो० १८) (सुद० ९७) षट् (वि०) छह। (समु० २/१७) 'षट्चक्रं (नपुं०) शरीर के छः चक्र। षट्क (वि०) [षड्भिः क्रीतं-षष्कन्] छ: गुना। विचक्राय षट्पदः (पुं०) भ्रमर, भौंरा। ___झों क्रौं अप्रतिचक्र फट। (जयो० १९/५५) 'षडभिः परित्यस्मात्पूर्वमपि' षट्कं (नपुं०) ०छह की समष्टि। मंत्र विशेष। (जयो०वृ० षट्कर्म-षट्कर्माणि दिने दिने गृहस्थ कर्म। (जयो०७० १९/५५) १२/३२) कौतुकपरिपूर्णतया याऽसौ षट्पदमतगुञ्जाभिमता। षट्खण्डागमः (पुं०) जैन सिद्धांत का एक प्राचीन ग्रन्थ, जो (सुद० ८२) शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध है। पुष्पदंत भूतबलि आचार्य षट्पदच्छायः (पुं०) भ्रमर की छाया। कलंक (जयो०व० की प्रसिद्ध सूत्र रचना है। (हित०सं० २६) २०/३७) षट्खण्डं (नपुं०) छहखण्ड। षट्त्रिंशत् (स्त्री०) छत्तीस। षट्कर्मविधिः (स्त्री०) छहकर्म की विधि, छह आवश्यक षट्पदराजिः (स्त्री०) भ्रमर समूह। (जयो० २४/१०८) कर्म विधि। षट्पदी (स्त्री०) भ्रमरी। (वीरो० ३/३३) ०छः आजीविका के उपाय-असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, षट्परमस्थानं (नपुं०) छः उत्कृष्ट स्थान। (हित० सं० २९) शिल्प और कला। षट्स्थानवृद्धि (स्त्री०) छः स्थानपतित वृद्धि रूप। प्रज्ञासु आजीवनिकाम्भुपाय, षट्स्थानहानि (स्त्री०) छ: स्थानपतित हानि। मस्यादिषट्कर्मविधिं विधाय। षड्गवं (नपुं०) छः बैलों की जोड़ी। षड्गुण (वि०) छ: गुना। षट्कायिक (वि०) षडावश्यक कर्म सम्बंधी। षडावश्यक षड्ग्रन्थि (वि०) पिप्परामूल। कर्म सम्बंधी। (प्रव० १४७) षड्विकायः (पुं०) छः जीव निकाय। षट्वोणः (वि०) छ: कोनों वाला। षड्रसमयी (वि०) छः रस मयी। षट्खण्डक (वि०) छः खण्ड वाला। यतः सौभाग्यं भायात्षट्खण्डकः (पुं०) चक्रवर्ती। षड्रसमय-नानाव्यञ्जन षट्खण्ड भूमीश्वरः (पुं०) चक्रवर्ती। (वीरो० ११/३३) दलमविकलमपि च सुधायाः। षट्खण्डविभूतिजन्य (वि०) छः खण्ड की विभूतियों से षड्दर्शनं (नपुं०) छ: दर्शन-चार्वाक, बौद्ध, जैन न्याय, वैशेषिक, युक्त। (मुनि० १५) ____सांख्य योग, मीमांसक। (सुद० १३२) खट्खण्डिन् (पुं०) चक्रवर्ती। चक्राधिपति। (जयो०१३/४६) षधिमाला (स्त्री०) भ्रमरतति। (जयो० २४/८३, सुद० 'षट्खण्डिबलाधिराडितः' (जयो०वृ० १३/४६) __७२) अलि समूह। षट्खण्डिनश्चक्राधिपतेर्बलस्याधिराट्। घडरचक्रबन्धः (पुं०) एक छन्द की विशेष योजना। खट् खण्डाधिपतिः (पुं०) चक्रवर्ती द्वात्रिंशत्सहस्त्रराजस्वामी प्रातः सन्ध्यामधिकुर्यादेवभवन्ध्यां छः खण्डभूत भरतक्षेत्र का स्वामी, जिसके आधीन बत्तीस तत्त्वार्थाध्ययनेकुशलस्तस्मादाविः। हजार मुकुटबद्ध राजा रहते हैं। सम्भूयाच्च हरेत् कुवासनाया वादं षट्चर (वि०) मुनि के छः आवश्यक कर्म का आचारण दम्भप्रायं तदसम्बन्ध्यात्मविषादम्।। (जयो०वृ० १९/९५, करने वाले। जयो०वृ० २१/९२) असि, मषि, कृषि आदि कर्म वाले। षण्डः (पुं०) [सन् ड] ०सांड, बलीवर्द। गृहस्थ के आवश्यक कर्म आदि। (सुद० ८२) नपुंसक। (सुद० १/७) दिगन्तव्याप्तकीर्तिमयः 'निवेषमाणो मयियस्तु षण्डः' प्रथिषट्चरण सङ्गीतिः। (सुद० ८२) स केवलं स्यात् परिफुल्लगण्डः। (सुद०१) षट्चरण ०समूह, समुच्चय, संग्रह, ढेर, राशि। For Private and Personal Use Only
SR No.020131
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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