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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुषिः १०८१ शद्रः शुषिः (स्त्री०) [शुष्+कि] सुखाना। रन्ध्र, छिद्र, विवर, बिल। शुषिर (वि०) [शुष्+किरच्] छिद्र युक्त, रन्ध्रमय विवरयुक्त। शुषिरः (पुं०) अग्नि, बह्नि, ज्वाला। ०चूहा, मूषक। शुषिरं (नपुं०) छिद्र, अन्तरिक्ष छिद्रयुक्त वाद्य, जो हवा की फूंक से बजाता है। शुषिरा (स्त्री०) [शुषिर+टाप्] नदी। एकगन्धद्रव्य विशेष। शुषिलः (पुं०) [शुष्+इलच्] पवन, वायु, हवा। शुष्क (भू०क०कृ०) [शुष्+क्त] सूखा, म्लान हुआ, मुझया हुआ। (दयो० ३५) रिक्त, व्यर्थ, अनुपयोगी, अनुत्पादक। निराधार, निष्कारण। झुर्रा सहित, कृशता सहित। ०कठोर, कर्कश। शुष्ककलहः (पुं) निराधार झगड़ा, व्यर्थ की कलह। शुष्कगत (वि०) सूखे पने को प्राप्त। शुष्कघोषः (पुं०) व्यर्थ का उद्घोष। शुष्कजडः (पुं०) सूखी जड़। शुष्कज्योति (स्त्री०) निराधार ज्योति। शुष्कपादपः (पुं०) सूखा पेड़। शुष्कभावः (पुं०) कठोर भाव। शुष्कमाला (स्त्री०) म्लान माला, मुझाई हुई माला। शुष्कयात्रा (स्त्री०) संघर्षशील यात्रा। शुष्कयोजना (स्त्री०) निराधार योजना। शुष्क राग (वि०) राग रहित, ममत्व विहीन। शुष्कलः (पुं०) [शुष्क+ला+क] सूखा मांस। शुष्कवृक्षः (पुं०) सूखा वृक्षा शुष्क श्रीफलं (नपुं०) सूखा नारियल। शुष्कास्थियुक् (वि०) सूखी हड्डी चबाने वाला। (सुद० १२१) शुष्मः (पुं०) [शुष्+मन्] सूर्य, रवि। अग्नि, आग। पवन, हवा। ०पक्षी। शुष्मन् (पुं०) [शुष्+ङ्+मनिप्] ०अग्नि, आग। शुष्मन् (नपुं०) पराक्रम, बल, वीर्य, शक्ति। ०प्रभा, आग। शुष्मन् (नपुं०) पराक्रम, बल, वीर्य शक्ति। प्रभा, कान्ति, प्रकाश। शुष्मं (नपुं०) पराक्रम, बल, शक्ति। शुष्यत् (वि०) सूखी हुई। (जयो०वृ० २०/६३) शुष्यतसलिला (स्त्री०) सूखी नदी। शीलसहस्त्रांशतेजसेव शुष्यत्सलिलासा-सरिदेव। (जयो०२०/६३) शूकः (पुं०) [श्वि+कक्] जौ की बाल। ०दयाभाव। शूकः स्यादनुकम्पायाम्। इति। विलो० (जयो० २७/४०) शूकं (नपुं०) पौधों के रोएं। शूकं (नपुं०) नोट, अग्रभाग, सिरा, किनारा। करुणा, कोमलता। विषैला कीड़ा। शूककीकः (पुं०) रोएंदार कीड़ा। शूककीटकः शूकधान्यं (नपुं०) ढूंट से निकला धान्य। शूकरः (पुं०) [शू इत्यव्यक्तं शब्दं करोति- शू+कृ+अच्] सूअर, सूकर। (जयो० २५/२१) शूकरेष्टः (पुं०) मोथा, नागरमोथा, एक घास विशेष। शूकल: (पुं०) [शूकवत् क्लेश ददाति- शूक+ला+क] अड़ियल अश्वा शूद्रः (पुं०) [शुच्+रक्] संस्कार हीन। ब्राह्मण्या अपि शूद्रत्व, संस्काराभावतोऽवन्तः। (हित०सं० २४) ०भ्रष्टाचार प्रहीण (जयो० ५/१०२) 'शूद्रो भ्रष्टाचारः प्रहीणोता जनः स' (जयो०वृ० ५/१०२) शिल्पकार, शिल्पी व्यक्ति, जो नक्कासी आदि करता TIT करकौशलेन च कलाबलेन कुंभादिनर्तनादिबला। शूश्रूषणं हि शूद्रा, जीवा खलु विश्वतो मुद्रा। (जयो० २/११४) 'कारु: शिल्पी कुशील वो नटस्तस्य कर्म नर्तनम्। एतद्विद्याकर्मण उपलक्षणम्। तस्मिन रतेषु शिल्पविद्योप, For Private and Personal Use Only
SR No.020131
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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