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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् *** ***************** ***** **६५ आत्मविशुद्धिरूप होता है । अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतियों के उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है। इन्हीं सातों प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व होता है। और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व इन सर्वघाति प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उदय आनेवाले उक्त प्रकृतियोंके निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम और सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होनेपर क्षायोपशमिक अथवा वेदकसम्यक्त्व होता है। सम्यग्दर्शनके दस भेद इस प्रकार हैं- शास्त्राभ्यासके विना वीतरागकी आज्ञा मानकर जो श्रद्धान किया जाता है वह आज्ञा-सम्यक्त्व है । दर्शनमोहका उपशम होनेसे जिन भगवान केद्वारा कहे हुए मोक्षमार्गमें श्रद्धान होना मार्गसम्यक्त्व है। तीर्थङ्कर आदि महापुरुषोंके चरित्रको सुनने से जो श्रद्धान होता है उसे उपदेशसम्यक्त्व कहते हैं। आचारांग सूत्रको सुनने से जो श्रद्धान होता है वह सूत्रसम्यक्त्व है। बीजाक्षरोंके द्वारा गहन पदाौँको जान लेने से जो श्रद्धान होता है वह बीजसम्यक्त्व है। संक्षेपसेही तत्त्वोंको जानकर जो श्रद्धान होता है वह संक्षेप-सम्यक्त्व है। द्वादशांगको सुनकर जो श्रद्धान होता है वह विस्तार-सम्यक्त्व है। आगमके वचनोंके बिनाही किसी पदार्थके अनुभवसे होने वाले श्रद्धानको अर्थ-सम्यक्त्व कहते हैं। अंगबाह्य और अंगप्रविष्टरूप सम्पूर्ण श्रुतका अवगाहन करनेपर जो श्रद्धान होता है वह अवगाढसम्यक्त्व है। और केवलज्ञानके द्वारा समस्त पदार्थोंको जानकर जो श्रद्धान होता है वह परमावगाढ़-सम्यक्त्व है ।। १८० ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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