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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४*************************** भव्यजनकण्ठाभरणम् आठ अंगोंका अभाव, तीन मूढ़ता, छै अनायतनोंकी सेवा और आठ मद ऐसे पञ्चीस दोष हैं। देव, शास्त्र और तत्त्वोंमें दृढ़ प्रतीतिका होना आस्तिक्य है। संसारसे डरते रहना संवेग है। रागादि दोषोंके उपशमको प्रशम कहते हैं । प्राणिमात्रका दुःख दूर करनेकी इच्छासे चित्तका दयामय होना अनुकम्पा है ॥ १७९ ।। उदेति हेतुद्वयतः सरागविरागभेदाद् द्विविधं त्रिभेदम् । शमोत्थहकक्षायिकवेदकानीत्याज्ञादिभेदादशधा तदेतत् ।। १८०॥ अर्थ- वह सम्यग्दर्शन अन्तरंग और बहिरंग कारणोंसे अथवा निसर्ग और अधिगमसे उत्पन्न होता है। सराग और वीतरागके भेदसे उसके दो भेद हैं। उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेके कारण उसके तीन भेद हैं- औपशमिक, क्षायिक और क्षायो. पशमिक या वेदक । तथा आज्ञा आदिके भेदसे उसके दस भेद हैं | भावार्थ- सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका अन्तरंग कारण तो दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है। उसके होनेपर जो बाह्य उपदेशसे जीवादि तत्त्वोंको जानकर श्रद्धान होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है और जो बाह्य उपदेशके विना स्वयंही जीवादि पदार्थोंको जानकर तत्त्वार्थश्रद्धान होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है। ये दो भेद बाह्य उपदेशके मिलने न मिलनेकी अपेक्षासे हैं। और सराग वीतराग भेद सम्यग्दर्शनके धारी जीवोंकी अपेक्षासे हैं। दसवें गुणस्थानतकके जीव सराग होते हैं और उसके ऊपरके जीव वीतराग होते हैं। सरागोंके सम्यग्दर्शनको सराग सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भावको लिये हुए होता है। और वीतराग सम्यग्दर्शन For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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