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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४*************************** भव्यजनकण्ठाभरणम् अर्थ- दुसरी बात यह है कि मांस, रज और वीर्यके संयोगसे बनता है, धातुरूप है, उसमें कफ और पित्त रहता है, मूत्र और विष्टासे सम्बन्ध रखता है तथा निगोदिया जीवोंसे भरा हुआ रहता है, किन्तु अन्नमें ये बातें नहीं हैं, इस लिये अन्नही खाने योग्य है ।। ९३ ॥ पयोऽस्ति पेयं पलमस्त्यभोज्यं भुवीशी वस्तुविचित्रता स्यात् । .. अहेर्विषं जीवितमाददाति ददाति रत्नं खलु देहभाजाम् ॥१४॥ __ अर्थ- जगतमें वस्तुओंके स्वरूपमें ऐसी विचित्रता है कि [ गौका ] दूध तो पीने योग्य है किन्तु मांस खाने योग्य नहीं है । एकही सर्पसे विषभी पैदा होता है और रत्न भी। किन्तु विष प्राणियोंका जीवन ले लेता है, जब कि रत्न जीवदान करता है ।। ९४ ।। तरूपलादेरपि जायमानो यथामिहेमादिरतद्गुणः स्यात् । अतद्गुणं मांसजमप्यवश्यं पयस्तथा पेयमतस्तदेतत् ॥ ९५ ॥ . अर्थ- आग लकडीसे उत्पन्न होती है किन्तु उसमें लकडीका कोई गुण नहीं पाया जाता । सोना पत्थरसे निकलता है किन्तु उसमें पत्थर वगैरहका कोई गुण नहीं पाया जाता। इसी तरह यद्यपि दूध मांससे उत्पन्न होता है किन्तु उसमें मांसका कोई गुण नहीं पाया जाता, अतः वह पीने योग्य है ॥ ९५ ॥ जज्ञे परस्त्रीरतिजाखिलाङ्गशेफेश्चिछनत्ति स्म बलं च जम्भम् । अबोधि न स्वस्य च शापमुच्चैरागामिनं तापसतोऽमरेन्द्रः ॥ ९६ ॥ अर्थ-परनारीके साथ सम्भोग करनेके कारण इन्द्रके समस्त शरीरमें योनियां बन गई थीं। उस इन्द्रने जम्भ और बल नामक दो दैत्योंको १ ल. माददाते ! २ ल. शेफाच्छिनत्ति स्म. For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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