SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् ★★★ *** ३३ शवा भवन्ती मृताङ्गिसत्वाः श्मशानमेषां पचनस्थली हि । ततो ध्रुवं मांसभुजः शवादास्तदीयगेहं नियतं श्मशानम् ॥९०॥ अर्थ - लोक में मरे हुए प्राणियोंके कलेवरको शव [ मुर्दा ] कहते हैं और जहां ये शव जलाये जाते हैं उसे श्मशान कहते हैं। अतः जो मांस खाते हैं वे नियमसे शवभक्षी [ मुर्दोंको खानेवाले ] हैं और उनका घर 'जहां उन शवोंको पकाया जाता है' नियमसे श्मशान है ॥ ९० ॥ मांसं भवेत्प्राणितनुस्तथैव भवेन्न वा प्राणितनुस्तु मांसम् । निम्बो. भवेद्भूमिरुहो यथैव भवेन्न वा भूमिरुहस्तु निम्बः ||११|| अथ स प्राणियोंका शरीर है किन्तु जो प्राणीका शरीर है वह सब मांस नहीं है । जैसे नीम वृक्ष होता है किन्तु प्रत्येक वृक्ष नीम नहीं होता || ९१ ॥ 1 जीवाङ्गभावे सदृशेऽपि सेव्यं स्यादन्नमेवार्यजनैर्न मांसम् । स्यादङ्गात्वे सदृशेऽपि सेव्या जायैव लोकैर्जननी तु नैव ॥ ९२ ॥ अर्थ - शायद कोई कहें कि अन्नभी तो जीवका शरीर है अतः जब अन्न खाते हैं तो मांस क्यों न खावें ? किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि अन्नभी जीवका शरीर है और मांसभी जीवका शरीर है, फिरभी आर्यपुरुषोंको अन्नही खाना चाहिये, मांस नहीं । जैसे माता भी स्त्री है और पत्नीभी स्त्री है, किन्तु लोग पत्नीकोही भोगते हैं, माताको नहीं ॥ ९२ ॥ शुक्रार्त्तवत्थं खलु धातुपं सश्लेष्मपित्तं सहमूत्रविष्टम् । निगोद सवैर्निचितं च मांसं सस्यं तु नेहक् तदिदं हि भोज्यम् ॥ ९३ १ ल. हि २ ल. धातुरूपं ३ ल. मूत्रपिष्टम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy