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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम ************************** १५ अर्थ - जबतक ब्रह्माने अपने रचे हुए संसारको नहीं देखा, उसे विषाद, अरति, भय, खेद, चिन्ता, पसेव, ज्वर, दाह और मूर्छाने सताया। और देखनेपर निद्रा, मोह और आश्चर्यने आ घेरा ॥३६॥ जाया विधेरस्तु सरस्वती सा ततः स्वयं चोद्घवरप्रदास्तु । आराधकेभ्यस्तु ततो विचित्रमसौ प्रपेदे न हितात्मतां सा ॥ ३७ ॥ __ अर्थ-वह सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी रहो और आराधन करनेवालोंको उत्तमोत्तम वर भी देनेवाली रहो, फिरभी वह आराधकोंका हित न करेगी। भावार्थ - सरस्वती ब्रह्मदेवकी कन्या थी । पुनः उसकी पत्नी होकर उसने यदि अपना अकल्याण किया तो वह आराधकोंका कैसे हित करेगी ? ॥ ३७ ॥ कषायवेगैः कलुषीकृतात्मा कञ्जासनानन्दकराङ्गजातः । कल्पान्तकालः कलहप्रियः कानामारयत्तैरिव नारदोऽस्मिन् ॥ ३८॥ अर्थ- जिसका आत्मा कषायके वेगसे कलुषित है, जो ब्रह्माके अंगसे उत्पन्न हुआ है तथा कल्पकालके समान भयानक है, उस कलह प्रेमी नारदने ब्रह्मा विष्णु और महेशकी तरह इस जगतमें किसको नहीं मारा ? ॥ ३८॥ अनल्परागः श्रियमम्बुजाक्षस्त्यक्तत्रपो वक्षसि ही दधाति । अलङ्कृताङ्गः सिचयैरमूल्यैर्माल्याङ्गरागैर्मणिभूषणैश्च ।। ३९ ॥ ___ अर्थ- बहुमूल्य मणिजडित भूषणोंसे, मालाओंसे और सुगन्धित द्रव्योंसे अपने शरीरको सुशोभित करनेवाला महारागी विष्णु लज्जा छोड़कर लक्ष्मीको अपने वक्षःस्थानमें रखता है ॥ ३९ ॥ १ ल. तथापि २ न दितात्मना सा For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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