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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (8****** ★★★★★ भव्यजनकण्ठाभरणम् करके इधर उधर ललचाती हुई फिरने लगी। तब उसे देखने के लिये ब्रह्माने चार दिशाओंमें चार मुख बना लिये, जब वह उसके मस्तक - पर नृत्य करने लगी तो उपर देखनेके लिये उसने गधेका मुख उत्पन्न किया ॥ ३२॥ धातातिरागी तु पुरोहितः सन्शम्भोर्विवाहे सह शैलपुत्र्या । अस्याः करस्पर्शसुखाद्रवन्द्रागयाध्विया हस्तगृहीतलिङ्गः ||३३|| अर्थ - ब्रह्माजी बडे विलासी थे। जब शंकरजीका विवाह पार्वती के साथ हुआ तो ब्रह्माजी पुरोहित थे। पार्वतीके हाथके स्पर्श सुखसे ब्रह्माजीका वीर्य स्खलित होगया और बेचारे लज्जानश अपने लिंगको हाथसे पकड़े हुए वहां से भग दिये ||३३|| शिवाय शापं विततार कोपात्स्रष्टा जगत्कल्पकला प्रणष्टम् । सिसृक्षषा (णा) सार्वमलं समृद्धं चिरादकार्षीद्धरिणा नियुद्धम् ||३४|| अर्थ - एकबार ब्रह्माने जगत्के विनाशकर्ता शिवको क्रुद्ध होकर शाप दिया और एकबार जगत्के रक्षक विष्णु के साथ चिरकालतक घोर युद्ध किया ||३४|| दिव्यत्तपोविकृते समेतां तिलोत्तमामात्मशिरः क्षतिं च । जगन्ति विष्णोर्जठरे स्थितानि स्रष्टा प्रमोहात्प्रथमं न जज्ञे ॥ ३५ ॥ अर्थ - दिव्य तपमें विघ्न करनेके लिये आई हुई अप्सरा तिलोत्तमाको, शिवजीके द्वारा अपने पञ्चम मस्तक के काटे जानेको और तीनों लोक विष्णु के उदरमें स्थित हैं इस बातको ब्रह्मा मोहवश पहले नहीं जान सका ||३५|| स्रष्टुः स्वसृष्टेषु जगत्स्वदृष्टेष्वा सन्विपादारतिभीतिखेदाः । चिन्तानिदाघज्वरदाहमूर्च्छा दृष्टेषु निद्रा रतिविस्मयौ च ॥ ३६ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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