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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १0*************************भत ** भव्यजनकण्ठाभरणम् भावार्थ- शिवपुराणमें लिखा है कि तारकासुरके तीन पुत्रोंने ब्रह्मासे वरदान प्राप्त करके तीन नगर बसाये थे। और उनमें निर्भय होकर रहते हुए वे असुर सब को कष्ट देते थे। तब देवोंकी प्रार्थनापर शिवजीने अपने बाणसे उनके तीनों नगरोंको भस्म कर डाला था। तथा एक गजासुर था वह भी बड़ा त्रास देता था । देवोंकी प्रार्थना पर शिवने उसे अपने त्रिशूल से मारा। तब उसने शिवजीसे प्रार्थना की यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मेरी जो खाल आपके त्रिशूलसे पवित्र होगई है उसे आप सदा धारण करें और आजसे आपका नाम 'कृत्ति. वास' प्रसिद्ध हो । शिवजीने इसे स्वीकार किया ॥ २२ ॥ शम्भुः स मोहानिजभक्तचित्तं चकार वेत्तुं शतधाप्युपायान् । दुरात्मनां दुष्टवरानदत्त स्ववत्परेषामपि दुःखहेतून् ।। २३ ॥ ___ अर्थ- शिव मोहवश अपने भक्तोंके मनकी बात जाननेके लिये सैकडों उपाय करता था । और दुष्ट लोगोंको भी दुष्ट वर दे डालता था। जो उसकी ही तरह दूसरों के लिये भी दुःख दायक होते थे ॥२३॥ शिरोऽक्षिजिह्वाकरदेहजातच्छेदादिभिः सेवकचित्तवृत्तिम् । विज्ञाय तेभ्यस्तु वरानभीष्टान्विरुद्धमोहाद्विततार शर्वः ॥२४॥ ___ अर्थ- सिर, आंख, जीभ, हाथ और शरीर के छेदन वगैरेसे अपने सेवकोंके चित्तकी वृत्तिको जानकर, बढे हुए मोहके कारण शिव उनको इच्छित वर दिया करता है ॥ २४ ॥ अजाद्भवो भाविनमात्मशापमहो न मोहातिशयादवोधि । अतस्तमेवैत्य तदुक्तिहेतुमयं पुनः कातरधीरपृच्छत् ॥ २५॥ अर्थ- ब्रह्माने उसे जो शाप दिया था, मोहकी अधिकता के कारण . .१ ल. विवृद्धमोहाद For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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