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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अबै MADLENDIDIKE MORAINSKIVAMENTOS मु० - अबकी - इसबार प्रबजाकर - इतनी देर पीछे, इतने समय के उपरान्त, अब-तब लगना या होना, मरने का समय निकट थाना । | अब-तब करना श्राज-कल का वादा करना, हीला हवाला या टाल-मटूल करना, raat sea और तब की तब - जो वर्तमान है उसे देखो, आगे-पीछे या भूतभविष्य की बात क्या । --- बै- क्रि० वि० दे० ( हि० अब ) अब ही अभी इसके उपरान्त, बलौं, अवैलौं । (दे० ० ) । क्रि० वि० वहीं, ( ब तक, अभी तक । प्रवहि( दे० ० ) अबहीं, अभी । हूँ हूँ । (दे० ब्र० ) अब भी, अभी भी, अवतें, अवतै । (दे० ० ) ११६ ब से, ब से ही । प्रबौं - क्रि० वि० दे० ( हि० अव ) वहुँ, थवभी, अबतक, श्रबहूँ । प्रभू (दे० प्रान्ती० ) श्रभी, अवतोली, तोडी | ( ० प्रान्ती० ) अब तक । अकर्तन - संज्ञा, पु० (सं० ) सूत्र- यन्त्र, चरखा । अवखरा -- संज्ञा, पु० अ० ) भाप, वाप्प | अवचन - वि० दे० (सं० प्रवचन ) वचन - विहीन, वाक्, बिना कथन के । अबटन - संज्ञा, पु० (दे०) उबटन, बटना | अवतर - वि० (का० ) बुरा, ख़राब, बिगड़ा हुआ । अदतरी -- संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) ख़राबी, बुराई । अबद्ध - वि० सं० ) जो बँधा न हो, मुक्त, स्वच्छन्द स्वतंत्र, निरंकुश । प्रबंध - वि० सं०] अवाध ) अचूक जो ख़ाली न जाय, जो रोका न जा सके, बाधा-रहित । वि० हि० ( अ + बध ) जो बधनीय न हो, न मारते योग्य | अबरन अधिक - वि० (सं० ) जो बध करने वाला न हो, जो बधिक न हो । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रबधू - वि० दे० (सं० अबोध ) श्रज्ञानी, अबोध, अल्पज्ञ, मूर्ख | अबधूत - संज्ञा, पु० दे० (सं० अवधूत ) सन्यासी, साधु, योगी, महात्मा, जीवनमुक्त, पाप - रहित । प्रबध्य - वि० (सं० ) जिसे मारना उचित न हो, शास्त्रानुसार जिसे प्राण- दंड न दिया जा सके, जैसे--स्त्री, गुरु, ब्राह्मण, जिसे कोई मार न सके । स्त्री० १० अवध्या । अवनी - संज्ञा, स्त्री० (सं० श्रवनी ) पृथ्वी, धरती । प्रबंध -- वि० (सं० ) बन्धन - रहित, प्रतिबंध-हीन | अबंधन - वि० सं० ) बंधन विहीन, स्वच्छन्द, स्वतंत्र | प्रबंधित - वि० सं० ) बन्धन- रहित, स्वेच्छाचारी | वि० [प्रबंधनीय- जो बन्धन के योग्य न हो । अवर - वि० (सं० प्रबल ) निर्बल, कमज़ोर, बल हीन । वि० दे० ( अ + वर ) श्रेष्ट, अनुत्तम । अबरक - संज्ञा, पु० (सं० अभ्रक ) काँच की सी चमकीली तहों वाली एक धातु विशेष, भोडर, भोडल । (दे०) एक प्रकार का पत्थर, इसको फूँक कर एक प्रकार का रस बनाया जाता है जो संन्निपात यादि रोगों में दिया जाता है। अबरख - दे० । अबरन - वि० (सं० श्रवर्य) जिसका वर्णन न हो सके, अवर्णनीय, अकथनीय । वि० (सं० अ + वर्ण) बिना रूप-रंग का, वर्ण-शून्य, एक रंग का जो न हो, भिन्न भिन्न वर्णों वाला, जो किसी एक जाति का न हो, जाति-च्युत, जाति रहित । यौ० ( हि० अब + रन ) । For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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