SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मौर्य-लिपि ७५ ई. स्वर मात्राएं और अनुस्वार ___. उत्तरकालीन मात्रा की तरह आ की मात्रा के लिए पहले एक सीधी लकीर लगती थी। अब यह लकीर ऊपर की तरफ उठने लगी है, जैसे कालसी में (उदाहरणार्थ देखि. शा, 37, III) या कभी-कभी दूसरे पाठों में भी। खा (10, V, VI), जा ( 15, VI आदि), टा ( 19, II), ठा (18, II), था (24, II) में आ की मात्रा की लकीर अक्षर के बीच में लगती है। भरहुत में 15, XXI की तरह का भी जा मिलता है। 2. इ की कोणीय मात्रा (उदाहरणार्थ खि, 10, II) गिरनार में हमेशा (दे. घि, 21, IX ) और जौगड़ के पृथक् आदेशलेखों में बिरले ही एक उथला भंग बन जाती है। यह खि (10, VIII), नि (27, IX), और दूसरे अक्षरों में जिनके अंत में खड़ी रेखा होती है अक्षर के बीच में लगती है। अक्सर ही यह आ की मात्रा की-सी दीखती है। कालसी आदेशलेख VIII, 2, 10 के ति (43, II) में इ की मात्रा दो बार व्यंजन के बाईं ओर लगती है । प्रयाग आदेशलेख I (अंत) के ति और सोहगौरा ताम्र-पट्ट की चौथी पंक्ति के हि में भी इसी तरह लगती है। ___3. गिरनार की ई की मात्रा प्रायः एक उथला भंग होती है जिसे एक खड़ी लकीर बीचों-बीच काटती है (द, 25, IX) किन्तु टी (18, IX) में इसमें दो खड़ी लकीरें हैं और थी में दो तिरछी। 4. उ की पूरी मात्रा उ अक्षर का ही तद्रूप है। यह कालसी के धु (26, III) में कई बार मिलती है। इसे कु (9, V), गु (11, IX), डु (20, VII), और अन्य अक्षरों में भी जिनके अंत में खड़ी रेखा होती है पहचानी जा सकती है । यह रेखा बाद में व्यंजन का एक भाग भी बनी रहती है और स्वर का भी काम करती है। नीचे इसी खंड के उ भाग के (1) के अंतर्गत संयुक्ताक्षरों के प्रसंग में टिप्पणी देखिए। दूसरे स्थानों में इसके गौण रूप मिलते हैं; जैसे, (क) धु (26, II), पु (28, II) आदि में खड़ी रेखा मिट जाती है; (ख) तु (23, V), आदि में खड़ी लकीर मिट जाती है। तु में उ की मात्रा की लकीर ऊपर उठ जाती है, जैसे, 23, VIII, और 43, III में; फलक III, 21, XIX के उत्तरकालीन तू से तुलना कीजिए। 5. ऊ की मात्रा भी ऊ अक्षर की तद्रूप थी। इसका पता उन अक्षरों की ऊ की मात्राओं से चल जाता है जिनके अंत में खड़ी लकीर होती है, जैसे भू (31, x) में। इनमें भी खड़ी लकीर दोहरा काम कर रही है। किंतु स्वर की 75 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy