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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेखन-कला की प्राचीनता ११ दो ही बार पोत्थक40 (पुस्तक) का उल्लेख है। विनयपिटक और निकायों में1 अक्खरिका नामक खेल की चर्चा कई बार आई है। बुद्धघोष के कथनानुसार इसमें आकाश में अक्षर पढ़ते ये। विनयपिटक (3, 4, 4) के पाराजिक खंड में बौद्ध भिक्षुओं को ऐसे नियम खोदने (छिदति) की मनाही है जिनमें कहा जाता है कि अमुक प्रकार से आत्महत्या करके अगले जन्म में स्वर्ग या धन या यश की प्राप्ति की जा सकती हैं । इससे यह स्पष्ट है कि (1) बुद्ध से पूर्व यती-मुनि अपने भक्तों को बाँस या लकड़ी की पट्टी पर ऐसे नियम खोदकर देते थे जिनमें यह बतलाया जाता था कि यदि भक्त अमुक विशेष विधि से धार्मिक आत्महत्या करे तो अगले जन्म में उसे स्वर्ग या धन या यश की प्राप्ति होगी। प्राचीन ब्राह्मण या जैन इस प्रकार के कृत्य की जोरदार संस्तुति करते थे। और (2) लोगों में लिखने-पढ़ने का पर्याप्त प्रचार था। जातक सं० 125 तथा महावग्ग 1,4912 से पता चलता है कि उस काल में भी प्रारम्भिक पाठशालाएं थीं जिनमें पढ़ाई का ढंग और उसके विषय भी लगभग वही थे जो आधुनिक भारतीय शालाओं में प्रचलित हैं। जातक में फलक (लकड़ी की पट्टी) और वर्णक (चन्दन का कलम) का वर्णन है। फलक का उल्लेख ललितविस्तर43 तथा बेरूनी44 में भी है। भारतीय शालाओं के बच्चे आज भी इसका इस्तेमाल करते हैं। महावग्ग में शाला का पाठयक्रम भी है: लेखा, गणना और रूप। हाथीगुंफा के अभिलेख के अनुसार कलिंग के राजा खारवेल ने भी अपने बचपन में ये तीन विषय सीखे थे। इस अभिलेख का समय मौर्य संवत् 165 है। लेखा का अर्थ है 'लिखना', और गणना का 'अंकगणित' अर्थात् जोड़, बाकी और पहाड़ा जिसे पहले अंक और आज आँक कहते हैं। रूप व्यवहार-गणित जैसा विषय होगा जिसमें रुपया, आना, पाई में हिसाब, ब्याज और मजदूरी और प्रारंभिक क्षेत्रमिति आदि का अभ्यास रहा होगा। देशी स्कूलों में, जिन्हें भारत में गाम्टी, निशाल, पाठशाला, लेह,शड या टोल कहते हैं, यही तीनों विषय पढ़ाये जाते हैं । अंग्रेजी में इन्हें "Three R's', अर्थात् Reading (पढ़ना), Writing (लिखना) और Arithmetic (अंकगणित) कहते हैं । सिंहली आगमों में ई० पू० 5001400, कुछ के मत से संभवतः छठी शती ई० पू०46 की विकसित स्थिति का वर्णन है । इनमें लेखन के संबंध में छिदति, 40. बु.इं.स्ट. III, 2, 120 41. वही 2, 16 42. वही 2, 13 तथा आगे - 43. संस्कृत पाठ 143 (मिला. बै. ओ. रे. 1, 59) 44. इंडिया, 1, 182 (सचाऊ) 45. छठां प्राच्य सम्मेलन, 3. 2. 154 46. बु, इं. स्ट. III, 2, 16 तथा आगे; ओल्डेनवर्ग, विनयपिटक I, XXXIV तथा आगे; मै. मूलर, सै. बु. ई. 10. XXIX तथा आगे 11 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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