SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षत्रप-वंश । अन्तर प्रतीत नहीं होता । अतः ‘सिंह ' को 'सेन ' और 'सेन' को सिंह भी पढ़ सकते हैं। __ हम पहले लिख चुकेहैं कि इसके कुछ सिक्कों पर "राजा महाक्षत्रप" और कुछ पर “महाराजा क्षत्रप” लिखा होता है। परन्तु यह कहना कठिन है कि उपर्युक्त परिवर्तन किसी खास सबबसे हुआ था या योंही हो गया था । यह भी सम्भव है कि "महाराजा"की उपाधिकी नकल इसने अपने पड़ोसी दक्षिणके त्रैकूटक राजाओंके सिक्कोंसे की हो; क्योंकि ई० स० २४९ में इन्होंने अपना त्रैकूटक संवत् प्रचलित किया था। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस समय त्रैकूटकोंका प्रभाव खूब बढ़ा हुआ था। यह भी सम्भव है कि ये त्रैकूटक राजा ईश्वरदत्तके उत्तराधिकारी हों और इन्हींकी चढ़ाई आदिके कारण रुद्रसेन तृतीयके राज्यमें १३ वर्षके लिये और उसके पहले ( श० सं०२५४ और २७० के बीच) भी सिक्के ढालना बन्द हुआ हो। सिंहसेनके कुछ सिक्कोंमें संवत्के अङ्कोंके पहले वर्ष ' लिखा होनेका अनुमान होता है ।। इसके पुत्रका नाम स्वामी रुद्रसेन था । स्वामी रुद्रसेन चतुर्थ [श०सं० ३०४-३१० ( ई० स० ३८२-३८८=वि० सं० ४३९-४४५) के बीच ] यह स्वामी सिंहसेनका पुत्र और उत्तराधिकारी था । इसके बहुत थोड़े चाँदीके सिक्के मिले हैं । इनपर "राज्ञ महाक्षत्रपस स्वामी सिंहसेन पुत्रस राज्ञ महाक्षत्रपस स्वामी रुद्रसेनस" लिखा होता है । इसके सिक्कों परके अक्षर ऐसे खराब हैं कि इनमें राजाके नामके अगले दो अक्षर 'रुद्र' अन्दाजसे ही पढ़े गये हैं। इन सिक्कोंपरके संवत् भी नहीं पढ़े जाते। इसलिए इसके राज्य-समयका पूरी तौरसे निश्चित करना कठिन है। केवल (१) Rapson's catalogue of the coins of the Andhra and Kshrtrapa dynasty, p. CXLVIII. For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy