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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतके प्राचीन राजवंश उस वंशकी चौबीसवीं पीढ़ीमें उनका राज्य मुसलमानोंने छीन लिया । इस वंशमें मुञ्ज और भोज (प्रथम) ये दो राजा बड़े प्रतापी, विख्यात और वियानुरागी हुए । उनके बनवाये हुए अनेक स्थानोंके खंडहर अबतक उनके नामकी मुहरको छातीपर धारण किये संसारमें अपने बनवानेवालोंका यश फैला रहे हैं। धारा, माण्डू और उदयपुर ( गवालियर) में परमारों द्वारा बनवाये गये मन्दिर भादिक उक्त वंशकी प्रसिद्ध यादगार हैं। परमारोंकी उन्नतिके समयमें उनका राज्य भिलसासे गुजरातकी सरहद तक और मन्दसोरके उत्तरसे दक्षिणमें तापती तक था। इस राज्यमें मण्डलेश्वर, पट्टकिल आदिक कई अधिकारी होते थे । राजाको राजकार्यमें सलाह देनेवाला एक सान्धि-विग्रहिक ( Minister of Peace and War ) होता था। यह पद ब्राह्मणोंहीको मिलता धा। सिन्धुराजके समय तक उज्जैन ही राजधानी थी। परन्तु पीछेसे भोजने धारा नगरीको राजधानी बनाया। इसी कारण भोजका खिताब धारेश्वर हुआ । उसका दूसरा खिताब मालवचक्रवर्ती भी था । परमारोंका मामूली खिताब-" परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर" लिखा मिलता है। इस वंशके राजा शैव थे। परन्तु विद्वान होनेके कारण जैन आदिक अन्य धर्मोंसे भी उन्हें द्वेष न था। बहुधा वे जैन विद्वानोंके शास्त्रार्थ सुना करते थे। परमारोंकी मुहरमें गरुड़ और सर्पका चिह्न रहता था। परमारोंके अनेक ताम्रपत्र मिले हैं। उनसे इनकी दानशीलताका पता चलता है । भविष्यमें और भी दानपत्रों आदिके मिलनेकी आशा है। (१) Ep.Ind., Vol III. For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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