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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मालवेके परमार। ३३-४१ उत्तर और ७५-११ पूर्वमें है। यह कुण्ड उसके चारों तरफ खिंची हुई पत्थरकी दृढ़ दीवारसहित अब तक विद्यमान है। कुण्डका व्यास कोई ६० गज है । वह गहरा भी बहुत है । वहीं एक टूटा हुआ मन्दिर भी है, जिसके विषयमें लोग कहते हैं कि यह भी भोजहाँका बनवाया हुआ है । बहुधा पहलेके राजा दूर दूरसे तीर्थोका जल मँगवाया करते थे । आज कल भी इसके उदाहरण मिलते हैं। ___ सम्भव है, धाराकी लाट-मसजिद भी भोजके समयके खंडहरोंसे ही बनी हो । उसे वहाँ वाले भोजका मठ बताते हैं । उसके लेखसे प्रकट होता है कि उसे दिलावरखाँ गोरीने ८०७ ईसवी (१४०५ ई० ) में बनवाया था। इस मसजिदके पास ही लोहेकी एक लाट पड़ी है। उसीसे इसका यह नाम प्रसिद्ध हुआ है। तुजक जहाँगीरीमें लिखा है कि यह लाट दिलावरखाँ गोरीने ८७० हिजरीमें, पूर्वोक्त मसजिद बनवानेके समय, रक्खी थी । परन्तु उक्त पुस्तकके रचयिताने सन् लिखनेमें भूल का है । ८०७ के स्थान पर उसने ८७० लिख दिया है। __ जान पड़ता है कि यह लाट भोजका विजयस्तम्भ है । इसे भोजने दक्षिणके चौलुक्यों और त्रिपुरी ( तेवर ) के चेदियोंपर विजय प्राप्त करनेके उपलक्ष्यमें खड़ा किया होगा । इस लाटके विषयमें एक कहावत प्रसिद्ध है । एक समय धारामें राक्षसीके आकारकी एक तेलिन रहती थी । उसका नाम गांगली या गांगी था उसके पास एक विशाल तुला थी। यह लाट उसी तुलाका डंडा थी और इसके पास पड़े हुए बड़े बड़े पत्थर उसके वजन-बाँट-थे । वह नालछामें रहती थी । कहते हैं, धारा और नालछाके बीचकी पहाड़ी, उसका लंहगा झाड़नेसे गिरी हुई रेतसे बनी थी। इसीसे वह तेलिन-टेकरी कहाती है । इसीसे यह कहावत चली है कि “कहाँ राजा भोज और कहाँ गांगली तेलिन " जिसका अर्थ आज काल लोग यह करते हैं कि यद्यपि तेलिन इतनी विशाल शरीरबाली थी, तथापि भोज जैसे राजाकी वह बराबरी न कर सकती थी। ૨૨૭. For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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